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स्थाई प्यार के दिन बीत गये / महेश सन्तोषी
Kavita Kosh से
मैंने तुम्हें भुला कर कोई भूल नहीं की,
शायद अब स्थाई प्यार के दिन बीत गये।
कौन ढोता है अब ठहरी हुई परछाईयों को?
ज़िन्दगी बांहों के झूलों पर गुजर जाती है।
पहले तो प्यार की एक रूह हुआ करती थी,
अब तो बस देह की गंध ही देह तक आती है।
मैंने तुम्हारी यादों को अपनी उम्र नहीं दी,
वह पिछली बहार के दिन थे जो कब के बीत गये।
शायद अब स्थाई प्यार के दिन बीत गये।
अब कहाँ होता है कोई किसी का सांसों-सा सगा
मेरी, सांसों थी, मैंने जहाँ चाहा, लुटा डालीं।
न मैं तुम्हारी पूजा थी, न तुम मेरी आरती,
कभी ज़िन्दगी तुमसे भरी रही, कभी तुमसे खाली।
बुझी यादों के दिये हों या बुझती यादों के
पुराने प्यार पर मजार के दिन बीत गये।
शायद अब स्थाई प्यार के दिन बीत गये।