भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
स्नेह-दीप / नरेन्द्र शर्मा
Kavita Kosh से
छोड़ आया जो दीपक बार--
बुझ गया होगा वह नादान, छोड़ आया जो दीपक बार!
ज्योति की कनक प्रभा ने नयन लिये होंगे अब तक तो मूँद,
स्नेह परिमित था, तुमने और न डाली होगी उसमें बूँद,
झरे होंगे जो सुधि के फूल, हुए होंगे जल बुझ कर क्षार!
जले औ बुझे बहुत से दीप, न क्या हम ज्योति-तमस-आवास?
किन्तु मेरे दीपक के साथ बुझे मेरे आशा-विश्वास!
बहुत चाहा था जीवन भार न हो, हो जाय न जग निस्सार!
बहुत कहने सुनने पर और बाद बाकी है इतनी बात,
कभी जब हो कठोर आघात नहीं रहती कहने को बात!
मिटा दोगी ही जो अवशेष धुँए के धब्बे हों दो चार!