स्पन्दन (कविता) / कैलाश पण्डा
हे मेरे देव !
स्थूल सूक्ष्म एवं कारण से परे
वीरान में स्थित
एक दिव्य मन्दिर के
अनन्त तेजमय धाम में
तुम्हारा स्वरूप स्थित है
जहां हर क्षण
तुम्हारा यशोगान स्वतः ही होता रहता है
हे देव
तुम्हारे अर्चन के लिए
मुझे पत्र- पुष्पादि की आवश्यकता नहीं होती
क्योंकि मेरे अन्तः करण में
उद्यान जो है
नित्य हवन के लिए
ह्रदय मंथन से निःसृत घृत भी परिपूर्ण है
अरू तेरे नाम की
प्रज्जवलित अग्रि भी मेरे यहां
कभी ब ुझती नहीं है
तुम्हारा स्मरण मात्र से
पच्चामृत हेतु मेरे अन्तर में मानो स्तनों से ही
दुग्धार प्रस्फुटित प्रतीत होती है
हे प्रभो !
मेरा प्रफुल्ल जब तुम्हारे समक्ष
नतमस्तक हो गद्गद् होता है
अरू जब वह अमृर्त नृत्य कर
कृत कृत्य होता है
तब असंख्य घुंघरूओं का
स्पन्दन होता रहता है
शंख नगाड़ों की तरह
नानावाद्यों की
अन्तर्ध्वनि विकसित होती है
मेरा अंतः
वीणा का रूप लेकर
स्वतः ही झंकृत होता रहता है
हे देव,
उस समय मेरे कपाल से
प्रसादरूपी मधुरधार प्रभावित होती है
जिसका पान करता मैं
अस्तु पुजा होती,
हे देव तुम्हारी इस मन्दिर में।