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स्पर्श की गर्मी/ सजीव सारथी
Kavita Kosh से
मैं भीग रहा था,
मगर उसे भीगने से बचा रहा था,
काले कपडे की नन्हीं सी छतरी,
मैंने झुका रखी थी उसकी तरफ़,
आधा बदन भिगो रहा था,
बारिश का पानी,
सूखा बदन जला रही थी –
स्पर्श की गर्मी
गर्दन से होकर, उसके काँधे पर रखा,
मेरा हाथ, उसने हटाया नहीं,
मुसलसल बातें चलती रहीं,
मुसलसल बरसता रहा पानी,
लम्हें जैसे फ़ैल गए थे,
अपनी उम्र जी गए,
उसकी मंजिल आ गयी,
वह शाम का वादा कर चली गयी
शाम तक मेरी सांसों से आएगी,
मिटटी की खुशबू,
शाम तक जिस्म सुलगाएगी
स्पर्श की गर्मी...