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स्मरण-मात्र से जिनके होता / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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स्मरण-मात्रसे जिनके होता सूक्ष्म कामनाका भी अन्त।
 ’पूर्णकाम’ वे ’स्तन्य-काम’ हो दौड़ पड़े ले क्षुधा अनन्त॥
 ’नित्यतृप्त’ जो रहते, जिनके ध्याता भी हो जाते तृप्त।
 वे हरि मातृस्तन्य-हित समझ रहे अपनेको ’नित्य अतृप्त’॥
 ’शुद्ध सव’ जो परमपुरुष हैं, जिनमें नहीं त्रिगुण-संश्लेष।
 ’क्रोध’ वरणकर होठ काटते वे, दिखता न क्षमाका लेश॥
 जिनकी शुभ स्मृति ही हर लेती जनके क्रएध आदि सब दोष।
 प्रकट कर रहे वे, हो काम-प्रतिहत दधि-भाजनपर रोष॥
 ’पूर्णैश्वर्ययुक्त’ जो नित स्वाराज्य-श्रीके परमाधार।
 वही ’लोभ’वश ’चोरी’ करते, घुसकर माखनके भंडार॥
 जिनके भयसे यम-कुबेर-सब करते नियमित सारे काम।
 छड़ी क्षुद्र वे देख जननि-कर बन जाते ’भय’रूप ललाम॥
 ’चौर्यविशङिङ्कत-नेत्र’ देखते बारंबार द्वारकी ओर।
 आ न जाय मैया, मारेगी मुझे समझ अपराधी-चोर॥
 ’भय-विह्वल’ हो भाग चले हरि, सहज तीव्र गतिमें कर वृद्धि।
 ’पकड़ लिया’ जाकर मैयाने, असफल हु‌ई ईश्वरी-सिद्धि॥
 पकड़ हाथ, मैयाने छड़ी दिखा, डाँटा अति, कहा-’अशान्त’।
 वानरसखा ! अदान्तात्मन्‌ ! तू हु‌आ ’धृष्टस्न्’ अति ही दुर्द्दान्त॥
 आज मिटा दूँगी मैं तेरा सब चतुरा‌ईका ’अभिमान’।
 ’रोने लगे’ आँख मल-मलकर एक हाथसे श्रीभगवान॥
 पर जिनकी शरणागतिसे ही कट जाते तुरंत बन्धन।
 बरबस वही बँधे ऊखल कमनीय कर रहे मधु-क्रन्दन॥
 शुद्ध सच्चिदानन्द, सनातन, नित्यमुक्त जो परम स्वतन्त्र।
 कर बन्धन स्वीकार उदरमें, हु‌ए यशोदाके परतन्त्र॥
जिनके अतुलैश्वर्य-सिन्धुके बिन्दु-बिन्दुमें विश्व अपार।
 डूबे रहते नित्य, लाँघकर, उसे, कौन जा सकता पार॥
 नहीं कभी हो सकता जिन असीमकी सीमाका निर्देश।
 नित्य अनन्त पूर्ण चिद्‌‌घनका नहीं प्राप्त हो सकता शेष॥
 काम-क्रएध-लोभ-भय-क्रन्दन-बन्धनको वे कर स्वीकार।
 दिव्य बना देते इनको, कर निज स्वरूपमें अङङ्गीकार॥
 नहीं कल्पना, नहीं भावना, माया, नाट्य, न दभ अनित्य।
 है यह रसमयका शुचि पावन प्रेम-रस-सुधास्वादन सत्य॥
 शुद्ध प्रेम-परवश हरिमें नित रहते साथ विरोधी-धर्म।
 इसीलिये होते उनके सब विस्मयभरे विलक्षण कर्म॥
 जानी-मुक्त, सिद्ध-योगी को‌ई भी थाह नहीं पाते।
 श्याम-रूप-संदोह-महोदधिमें वे सहज डूब जाते॥
 मधुर दिव्य इस भगवद्‌‌रसका वही परम रस ले पाते।
 केवल प्रेमपूर्ण सर्वार्पण कर जो उनके हो जाते॥
 इसीलिये सर्वार्पित-जीवन महाभाग वे गोपी-ग्वाल।
 दिव्य रस-सुधास्वादन करते रहते हैं सब विधि सब काल॥
 नहीं छोडक़र जाते ब्रजको कभी रसिकवर वे नँदलाल।
 निज-जन सबको सुख देते वे, करते रहते नित्य निहाल॥
 उन प्रेमीजनके पवित्र पद-रज-कणको है अमित प्रणाम।
 जिनके प्रेमाधीन हु‌ए हरि करते लीला मधुर ललाम॥
 जिनकी माया-रज्जु कठिनसे बँधे अखिल अगणित संसार।
 देव-दनुज, मुनि-मनुज, चराचर, है सबपर बन्धन-विस्तार॥