स्मरण-मात्रसे जिनके होता सूक्ष्म कामनाका भी अन्त।
’पूर्णकाम’ वे ’स्तन्य-काम’ हो दौड़ पड़े ले क्षुधा अनन्त॥
’नित्यतृप्त’ जो रहते, जिनके ध्याता भी हो जाते तृप्त।
वे हरि मातृस्तन्य-हित समझ रहे अपनेको ’नित्य अतृप्त’॥
’शुद्ध सव’ जो परमपुरुष हैं, जिनमें नहीं त्रिगुण-संश्लेष।
’क्रोध’ वरणकर होठ काटते वे, दिखता न क्षमाका लेश॥
जिनकी शुभ स्मृति ही हर लेती जनके क्रएध आदि सब दोष।
प्रकट कर रहे वे, हो काम-प्रतिहत दधि-भाजनपर रोष॥
’पूर्णैश्वर्ययुक्त’ जो नित स्वाराज्य-श्रीके परमाधार।
वही ’लोभ’वश ’चोरी’ करते, घुसकर माखनके भंडार॥
जिनके भयसे यम-कुबेर-सब करते नियमित सारे काम।
छड़ी क्षुद्र वे देख जननि-कर बन जाते ’भय’रूप ललाम॥
’चौर्यविशङिङ्कत-नेत्र’ देखते बारंबार द्वारकी ओर।
आ न जाय मैया, मारेगी मुझे समझ अपराधी-चोर॥
’भय-विह्वल’ हो भाग चले हरि, सहज तीव्र गतिमें कर वृद्धि।
’पकड़ लिया’ जाकर मैयाने, असफल हुई ईश्वरी-सिद्धि॥
पकड़ हाथ, मैयाने छड़ी दिखा, डाँटा अति, कहा-’अशान्त’।
वानरसखा ! अदान्तात्मन् ! तू हुआ ’धृष्टस्न्’ अति ही दुर्द्दान्त॥
आज मिटा दूँगी मैं तेरा सब चतुराईका ’अभिमान’।
’रोने लगे’ आँख मल-मलकर एक हाथसे श्रीभगवान॥
पर जिनकी शरणागतिसे ही कट जाते तुरंत बन्धन।
बरबस वही बँधे ऊखल कमनीय कर रहे मधु-क्रन्दन॥
शुद्ध सच्चिदानन्द, सनातन, नित्यमुक्त जो परम स्वतन्त्र।
कर बन्धन स्वीकार उदरमें, हुए यशोदाके परतन्त्र॥
जिनके अतुलैश्वर्य-सिन्धुके बिन्दु-बिन्दुमें विश्व अपार।
डूबे रहते नित्य, लाँघकर, उसे, कौन जा सकता पार॥
नहीं कभी हो सकता जिन असीमकी सीमाका निर्देश।
नित्य अनन्त पूर्ण चिद्घनका नहीं प्राप्त हो सकता शेष॥
काम-क्रएध-लोभ-भय-क्रन्दन-बन्धनको वे कर स्वीकार।
दिव्य बना देते इनको, कर निज स्वरूपमें अङङ्गीकार॥
नहीं कल्पना, नहीं भावना, माया, नाट्य, न दभ अनित्य।
है यह रसमयका शुचि पावन प्रेम-रस-सुधास्वादन सत्य॥
शुद्ध प्रेम-परवश हरिमें नित रहते साथ विरोधी-धर्म।
इसीलिये होते उनके सब विस्मयभरे विलक्षण कर्म॥
जानी-मुक्त, सिद्ध-योगी कोई भी थाह नहीं पाते।
श्याम-रूप-संदोह-महोदधिमें वे सहज डूब जाते॥
मधुर दिव्य इस भगवद्रसका वही परम रस ले पाते।
केवल प्रेमपूर्ण सर्वार्पण कर जो उनके हो जाते॥
इसीलिये सर्वार्पित-जीवन महाभाग वे गोपी-ग्वाल।
दिव्य रस-सुधास्वादन करते रहते हैं सब विधि सब काल॥
नहीं छोडक़र जाते ब्रजको कभी रसिकवर वे नँदलाल।
निज-जन सबको सुख देते वे, करते रहते नित्य निहाल॥
उन प्रेमीजनके पवित्र पद-रज-कणको है अमित प्रणाम।
जिनके प्रेमाधीन हुए हरि करते लीला मधुर ललाम॥
जिनकी माया-रज्जु कठिनसे बँधे अखिल अगणित संसार।
देव-दनुज, मुनि-मनुज, चराचर, है सबपर बन्धन-विस्तार॥