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स्मृतियाँ हैं ये भी / बहादुर पटेल

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पुरानी शिला के नीचे से निकल आती
बिच्छू-सी
अवचेतन में मारती हुई डंक
स्मृतियाँ बार-बार लौटती हैं
टहलते हुए निकल जाते हैं उनमें
दोहराते हुए घटनाओं को
बहुत सारा समय
थोड़ी देर में घूम जाता है भीतर

बचपन का वह मसूम चेहरा
पीछे छिपा शरारत भरा दिमाग़
फ़ज़ीहत रास्ते चलतों की
मनोरंजन हुआ करती हमारे लिए
तैर आती हैं घटनाएँ
अपनी शरारतों पर
बचपन की हँसी चेहरे के परदे पीछे

श्रेणियाँ हुआ करती थीं हमारी
जो तय होती थीं कारस्तानियों की बिना पर
अध्यापकों की छड़ियाँ
जानती थीं हमारे हाथों का स्वाद
उन छड़ियों का स्वाद
हमारे सभ्य होने के पीछे खड़ा है

स्मृतियाँ पीछा नहीं छोड़तीं
पड़ जाती हैं छड़ी लेकर पीछे
और हमें करनी पड़ती है याद
पहाड़ों, प्रश्नोत्तरों की तरह आज भी
वे बना लेती हैं जगह

स्मृति में माफ़ करते हैं
बचपन की शैतानियों को
कचोटने लगती हैं
इस समय की ऎसी घटनाएँ
जो तैयार होती हैं समझ के घालमेल से
स्मृतियाँ हैं ये भी
जिन्हें भुलाना हमारे वश का नहीं होता

हमारे भीतर स्मृतियों के लिए होती है बहुत सारी जगह।