स्मृतियों का खो जाना / अशोक कुमार
जब हम एक जाल बुनते हैं
तो कोई न कोई फँसता है
या तो मछलियाँ
या फिर कोई आदमी
जो जाल बुने जाने से अनजान होता है
आकाश एक जाल बुनता है
और फँसता है एक सूरज
जो फिर डूब कर भी वहीं पहुँच जाता है
जहाँ से उगा था
सूरज वैतरणी के पार नहीं जाना चाहता
भवसागर में ही वह स्वयं के होने के अर्थ अन्वेषित करता है
वह स्थापित करता है एक कक्षा
आकाश के इर्द-गिर्द
और अपनी धुरी पर घूमता है
आकाश के बुने जाल में
आकाश के बुने जाल में
फँसता है एक प्यारा-सा चांद
जो जब ज्यों ही बड़ा होता है
कटता जाता है
आकाश। के जाल में
असंख्य तारे झिलमिलाते हैं
और अपने फँसे होने का इजहार करते हैं
अपनी छोटी आँखें झिलमिला कर
किसी जाल के बुने जाने पर
किसी जाल में फँसे होने पर
अस्तित्व खतरे की घंटियाँ बजाता है
स्मृतियों को खो देता है
स्मृतियों के विलुप्त हो जाने पर
आदमी सूरज बन जाता है
और अपनी ही आग में तपता है
और कोल्हू के साथ जुड जाता है
चांद बन जाता है
और स्थिर नहीं रह पाता है
तारे बन टिमटिमाता है
स्मृतियाँ अक्षुण्ण होती हैं
और उनका विलोप क्षणभंगुर बना डालती हैं।