भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

स्मृति-डंक / अनिरुद्ध प्रसाद विमल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जब तांय
तोंय नै ऐभौ
हम्में चाँद केॅ डूबेॅ नै देबै!

हमरा याद छै
कि हम्में भूलेॅ भी ने पारौं
ऊ सँझौती बेरा
प्रतीक्षा में भींजलॅ आँखी के कोर
निराश देखथैं,
आबी जाय छेलौ तोंय
पुकारलेॅ हमरॅ नाम।

आरो तोरा देखथैं हम्में खिली जाय छेलियै
अमलतास नांकी
महकी जाय छेलियै रात-रानी नांकी
भूली जाय छेलियै दुनियां के सब दुख
आरो निकली जाय छेलियै तोरा साथें
-चानन नदी के किनार पर।

नजर भर दूर-दूर तांय बिछलॅ
ऊ चाँदी के बालू
देर तांय वही चांदी के बालू पर चलला के बाद
थक्की के बैठी गेला पर
तोहें हमरा निरयासी के देखॅे लागौ
आरो बस एक्के बात पूछै छेलौ
कि सही-सही बतावॅ हमरॅ प्राणॉ के गंध
ई बालू के ढेरो पर
उजरॅ दकदक साड़ी पीन्ही केॅ
तोहीं पटैली छॅ
कि पटेली छै चाँदनी?

आरो फेरू
हमरॅ मुँहॅ केॅ अपना दोनों तरोथॅ में थामी
देर तांय नै जानौं की देखै छेलौं तोंय?
प्रीतम! ऐकरॅ मानें
तोहरॅ आँखी के ऊ भाव
हम्में आय समझी रहलॅ छिपै
आबेॅ केना केॅ बतैय्यौं तोरा
कि तखनी की होय गेलॅ छेलै हमरा
के छेलै ऊ?
केकरॅ छेलै ऊ छुवन
जें बनाय देलकै हमरा अदलाही
हों तोहरॅ प्यार ने तेॅ!
तोहरॅ प्यार ने तेॅ!
तोरॅ प्यार ने तेॅ!