स्मृति-डंक / साँवरी / अनिरुद्ध प्रसाद विमल
जब तक
तुम नहीं आओगे
मैं चाँद को डूबने नहीं दूँगी !
मुझे याद है
कि मैं भूल भी नहीं सकती
वह सँझौती वेला
प्रतीक्षा में भींगती आँखों के कोर
निराश देखते ही
आ जाते थे तुम
पुकारते मेरा नाम।
और तुम्हें देखते ही मैं
खिल जाती थी
अमलतास की तरह
महक जाती थी
रातरानी की तरह
भूल जाती थी दुनिया का सारा दुःख
और निकल जाती थी तुम्हारे संग
चानन नदी के कछार पर
नजर भर दूर-दूर तक बिछे
चाँदी के वे बालू
देर तक चाँदी के उसी बालू पर
चलने के बाद
थककर बैठ जाने पर तुम मुझे निरयासने लगते
और बस एक ही बात पूछते थे
कि सही-सही कहो मेरे प्राणों की गंध
इस बालू की राशि के ढेर पर
दक-दक उजली साड़ी पहनकर
तुम ही सोई हुई हो
या सोई हुई है चाँदनी
और फिर
मेरे चेहरे को अपनी दोनों हथेलियों में थामे
देर तक न जाने क्या देखते थे तुम
प्रीतम इसका अर्थ
तुम्हारी आँखों के वे भाव
मैं आज समझ पा रही हूँ
अब कैसे बताऊँ तुम्हें
कि उस समय क्या हो गया था मुझे
कौन था वह ?
किसका था वह स्पर्श ?
जिसने बना दिया मुझे बावली
हाँ
तुम्हारे प्यार ने ही तो
तुम्हारे प्यार ने ही तो
तुम्हारे प्यार ने ही तो।