स्मृति और विस्मृति का द्वंद्व / पूनम चौधरी
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स्मृति और विस्मृति का द्वंद्व / पूनम चौधरी
क्या नदियों को याद होगा
उन बूँदों का नेह,
जो भाप बनकर छोड़ गईं
नदी का आँचल?
या हर बार
नई धाराओं में बहकर
भूल जाती होंगी
पुराना अभाव?
क्या हवाएँ सहेज पाती होंगी
वे आवाज़ें,
जो गुज़री थीं
अपनी ही महक लिये—
पहला अक्षर,
पहली रुलाई,
पहली हँसी?
या वे सब
बिखर जाते होंगे
दिशाओं में,
अनाम होकर?
क्या धरती थामे रखती होगी
वे पगचिह्न,
जो छोड़ गए पथिक
अधूरी यात्राओं के साथ?
या पहली बरसात
धो देती होगी
उन पुराने निशानों के किस्से,
लिख देती होगी
नई कहानी?
क्या दीपक
याद रखता होगा
वह लौ,
जो क्षण भर में
राख बन गई?
या उसकी मिट्टी की आदत है—
हर बार भूल जाना अंधकार,
नई बाती के साथ?
क्या पाखी खोजते होंगे
वह पेड़,
जहाँ पहली बार
बनाया था उसने नीड़?
या उड़ानों का अनंत व्योम
दे देता होगा
विस्मृति का वरदान?
प्रकृति भूल जाती है।
धरती, आकाश, वृक्ष, फूल, पंछी—
सब रच देते हैं नया,
और बहा ले जाते हैं पुराना।
प्रकृति को मिला है
विस्मृति का वरदान।
वह अतीत को
क्षण-भर जीकर
आगे बढ़ जाती है।
पर हम?
हम तो स्मृतियों से गढ़े मनुष्य हैं,
हर स्पर्श,
हर ध्वनि,
हर बिछोह
हमारी आत्मा पर
आखर की तरह अंकित है।
प्रकृति को मिला है,
विस्मृति का वरदान,
मनुष्य को,
मिला है,
स्मृति का शाप
और
यही शाप जनक है,
कला का,
कविताओं का,
चित्र उकेरने की बेचैनी का,
कहानियों के तंतु रचने का,
हम अभिशप्त हैं—
कुछ भी न भूलने के लिए।
पर यही
हमारा वरदान भी है।
क्योंकि स्मृतियाँ ही वह अग्नि हैं
जो हमें साधारण से असाधारण बनाती हैं,
जो हमें
धरती और आकाश से अलग करती हैं,
और मनुष्य होने का अर्थ प्रदान करती हैं।
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