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स्मृति का प्राकतन जल / गोबिन्द प्रसाद


तुम्हारी स्मृति का प्राक्त न जल
लाखों-करोड़ों वर्ष पहले की
अन्धेरी रातों में
धीरे से उतर
बहता है
प्रशान्त
नील समुद्र निधि बन
सृष्टि का कोई अनाम दिवस
सुबह के किनारों से
जा मिलेगा भटका हुआ
चाँद,लेकिन उस पार
नहीं जा सकेगी मेरी नाव
किसी तारे की तरह
जहाँ चमक रहे हो तुम
समाधिस्थ साधक-सा
मैं
नादीद
उस लहर को ढूँढ़ता
मरुस्थल हो चुका हूँ
अब
काल की लहर
तिरती नाव...
सब थिर खड़े हैं भोर के उजास में
स्मृति का आइना लिए