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स्मृति की रेखाएँ / महेन्द्र भटनागर

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प्राणों में प्रिय ! आज समाया
अभिराम तुम्हारा आकर्षण !

जो कभी न मिटने पाएगा,
जो कभी न घटने पाएगा,
तीव्र प्रलोभन के भी सम्मुख
जो कभी न हटने पाएगा,

शाश्वत केवल यह, जगती में
मनहर प्राण ! तुम्हारा बंधन !

यदि भरलूँ मुसकान तुम्हारी,
और चुरा लूँ आभा प्यारी,
तो निश्चय ही बन जाएगी
मेरी दुनिया जग से न्यारी,

तुमने ही आज किया मेरा
जगमग सूना जीवन-आँगन !

अनुराग तुम्हारा झर-झर कर
जाए न कभी मुझसे बाहर,
साथ तुम्हारे रहने के दिन
सच, याद रहेंगे जीवन भर,

स्नेह भरे उर से करता हूँ
मैं सतत तुम्हारा अभिनन्दन !