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स्मृति में वसन्त / भारत भारद्वाज

वर्षों बाद कौन्धा है आज स्मृति में वसन्त
आसपास ज़रूर कहीं खिले होंगे फूल
इस वसन्त में झमाझम बरसी हैं बारिश की बून्दें
कितना भीगे हम ?
कहीं दूर समुद्र में उठी होंगी
उत्ताल तरंगें भी
समुद्र में कितना डूबे हम ?
इस महानगर में कौन आज हमें बताएगा
कहीं शारदीय पूर्णिमा तो नहीं आज ?

यह कैसे हुआ
अचानक खुली खिड़की से
सहसा प्रवेश किया वसन्त ने
हिला गया मेरे पूरे तन-मन को
नहीं, मेरे पूरे अस्तित्त्व को

नहीं भाई, यह सपना नहीं है
न फ़ैण्टेसी
लेकिन वसन्त चुपचाप शान्त
पूरी उत्तेजना के साथ
हमारे भीतर से गुज़र गया
अब तक काँप रहे हैं
थरथरा रहे हैं
मेरे कमरे के सोफ़ा सेट,
बेड, कुरसी, टेबल

लेकिन अब कहीं नहीं है वसन्त
बस, उसकी एक स्मृति है
पीछे छूटी एक अनुगूँज !