स्मृति / अंतर्यात्रा / परंतप मिश्र
एक दुनिया बसती है मुझमें
तुम्हारी सुखद स्मृतियों की
तुम्हारे साथ बिताये हुए सभी पल
आज भी जीवित हैं
मुझे आनंदित करते हैं।
तुम्हारी उपस्थिति का एहसास होता है
इसलिए एक-एक पल को रोक लेना चाहता हूँ
बीतने से पहले, जी लेना चाहता हूँ एक युग
विचरण करता हूँ तुम्हारे साथ
स्वर्ग में बनी मनमोहक बगिया में
हाथों में हाथ डाले आहिस्ता-आहिस्ता
देखता हूँ जब तुम्हारा रूप-सौन्दर्य।
मंत्रमुग्ध, चेतनाशून्य निःशब्द पाता हूँ अपने आप को
अपलक आँखों से
तुम्हारे अप्रतिम सौंदर्य का मदिरा-पान करके
मैं मूर्तिवत् होकर स्वयं में खो जाता हूँ
पलकों के भार से बोझिल अधखुली आँखें
झील-सी गहरी आँखों में समाधिस्थ पाता हूँ
दूर पहाड़ी से गिरते हुए झरने की तरह
तुम्हारी खिलखिलाती हँसी कानों में
मिसरी की तरह घुल जाती है
रक्ताभ होंठों से झाँकती धवल दन्तपंक्ति
आसमानी बिजली की तरह चमक जाती है।
मैं रोक लेना चाहता हूँ इन लम्हों को
अभी न जाओ, ठहर जाओ कुछ देर के लिए
अब तुम्हारे सौन्दर्य की अमृतवर्षा में
मेरे तन - मन पूरी तरह भीग चुके हैं
कैसे जाने दूँ तुम्हें इन पलों के साथ
संयोग के पलों को सुरक्षित कर लेना चाहता हूँ
वियोग की अग्नि से बचने के लिए।
इतना सुंदर स्वर्ग कभी नहीं लगा मुझे
धीमे कदमों से चलती हुई, दरवाजे के उस पार
तुम ओझल हो गयी और
मैं आज भी स्वर्ग की सीढ़ियों पर
प्रतीक्षारत स्वयं को पाता हूँ।
यह मेरा विश्वास है, तुम निष्ठुर नहीं
एक दिन फिर तुम आओगे मुझसे मिलने
पर, अब चलता हूँ यहाँ से
तुम्हारे बिना यह स्वर्ग वीराना सा लगता है।
और अब फर्क भी क्या पड़ता है
तुम मेरी आँखों के रास्ते
मेरे मन में बस गए हो
मेरे हृदय में तुम्हारे प्रेम का सागर लहराता है
जब वेदना की आग से वाष्पित होकर
एक धारा बनकर बह निकलती है।
मेरे शब्दों में उतर जाते हो तुम एक कविता बनकर
एक नदी की तरह प्रवाहित होने लगती हो
एक गीत की तरह गुनगुनाने लगता हूँ मैं तुम्हें
सब कुछ तुम्हीं हो, तुम्हारा ही है सबकुछ
कुछ भी नहीं हूँ मैं, मेरा कुछ भी नहीं है
तुम्हरी स्मृतियों के सिवा।