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स्मृति / सुरेश सलिल

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यहाँ कभी होता था एक गाँव-
एक पुरातन वटवृक्ष के नीचे
पागुर करती, सुस्ताती
नदी तैर कर आई गायें-
शाख पकड़ झूलते बालवृंद; एक लय में
कि जैसे रतनिया के छंद।

यहाँ कभी होता था एक गाँव-
सदियों पुराने एक ढीह पर
हवनगंध में डूबी संदीपन पाठशाला,
निकट ही; व्रत पारण करते,
गायों की टोह्में दर-दर भटकते
परदेसी वृद्ध गंगादीन दुबे।

यहाँ कभी होता था एक गाँव-
अभिजात आक्रोश को अंगनू
सौम्यता से शामित करता,
लहक-लहक उठता आल्हे की आलाप
या कि छोकरा नाच की थाप पर
जानकी पांडे के साथ...
मस्ती में काट देता सारी-सारी रात जवामर्दी के साथ
सालिगराम की चंडाल चौकड़ी के बीच।

यहाँ कभी होता था एक गाँव-
दीवाली या होली की साँझ
किसी के छानी-छप्पर के नीचे; या कि चौरे पर जुड़ी
भीरुजनों या कि यज्ञजनों की भीड़ में से फूटते
'पाटन' के कड़क भरे; बादल राग गुँजाते स्वर-
अज्ञात और अतर्क्य देवछायाओं के स्वागत गान--
("सगस्सिरी मंतरेसिरी बाचा की छूऊ ऊ ऊ ह..."।)

यहाँ कभी होता था एक गाँव-
नीम के हरे किल्ले से दधि के छींटे छिड़कता;
जागता झींका-खँझड़ी के साज पर
भजनीकों के कृष्ण-जन्म के पदों में डूबा आकंठ।