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स्याम मोरे ढिग तें कबहुँ न जावै / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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स्याम मोरे ढिग तें कबहुँ न जावै।
कहा कहूँ सखि ! गैल न छाडै, जित जान्नँ तित धावै॥
गैया दुहत गोद आ बैठे, दूध धार पी जावै।
दही मथत नवनीत लेबे कौं, मटकी माहिं समावै॥
रोटी करत आ‌इ चौका में, ऊधम अमित मचावै।
जेंवत बेर संग आ बैठै, माल-माल गटकावै॥
सखियन सँग बतरात आ‌इ सो पंचराज बनि जावै।
मुरली मधुर बजाय देखु सखि, मोहन हमहिं रिझावै॥
सोवत समै सेज आ पौढ़ै, गृह-स्वामी बनि जावै।
स्वल्प निंदरिया बीच सपन महँ माधुरि-रूप दिखावै॥
तदपि न बरजत बनै ताहि सखि ! चित अति ही सुख पावै।
बारहिं बार निहारि चंद्र-मुख, अंतर अति हुलसावै॥