स्याही-क़लम / दिनेश दास
मैं कवि हूँ
मैंने तुम लोगों से क्या चाहा था!
सुनाऊँ कुछ गीत
सुनूँ तुम्हारे सुर, जितने हो सके
इससे ज़्यादा मैंने क्या चाहा था तुमसे!
इतना भी क्या तुमने दिया था मुझे?
तुम्हारे काग़ज़ से हर सुबह
कच्चा ख़ून टपकता है
मेरे चाय के प्याले में
रोज़ कड़वे हो जाते हैं रोटी-चावल
जीवन का स्वर्णमृग जाने कहाँ लापता हो गया है,
नहीं है
साँझ की स्फटिक-रोशनाई:
जमा हुआ है घना अन्धेरा!
मैं पैराशूट से नहीं उतरा था नीचे
इस मिट्टी की पौध हूँ मैं
ख़ुद जानता हूँ:
इस घने जंगल में भी रास्ता है --
दूध की पतली धार-सा मैदानी रास्ता,
उम्मीद की शपथ ।
मुझे नहीं पता कब
महासागर के किस तट पर
बोतल में बंद ज़िन्न
ढक्कन खोल आज़ाद हो गया है,
असहनीय रूप से भूखा वह ज़िन्न
लोहे की चम्मच से
खरोंच-खरोंच कर पृथ्वी का माँस खाता है।
बीमार मरणासन्न है युग
मौत के दिन गिनता है
सामने-बिखरती है मृतकों की साँस,
ख़ुुद झुलसता है
हमारी धमनियों को बेधता है मरा हुआ ख़ून,
मलिन और मूक
जीवन के पान-पात्र में रख जाता है ज़हर का घूँट।
युग के संधि-क्षणों ने
जाने कब प्रत्याशा की दीपशिखा जलाई थी
देखता हूँ इन्सानों के सपने
जीवन के सुनहले मंदिर में
धीरे-धीरे सच हो उठते हैं।
जागेगा पानी का गीत
अविराम,
मेरे पुराने घर की खोखली देहरी पर
कॉपियों, प्रेम की गाँठ -- क़लम और स्याही में।
मूल बँगला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी