स्याही से बैठे-बैठे मत दीवारों पर काला लिख / अमरेन्द्र
स्याही से बैठे-बैठे मत दीवारों पर काला लिख
इन अन्धेरी रातों में केवल तू एक उजाला लिख
जहाँ-तहाँ बिन सोचे-समझे यूं ही नहीं ‘बटाला’ लिख
लिखना है तो इसी जगह पर यार तू ‘जलियांवाला’ लिख
उनसे ही जा के तुम पूछो शीतलता कैसे आए
जो कहते हैं तुमसे केवल लिखो अगर तो ज्वाला लिख
मत लिख तुम यह लोभ के मारे यह सियार की माँद-गुफा
दिखता है यह साफ शिवाला इसपर साफ शिवाला लिख
बहुत लिखे तुम दीवारों पर नाम सियासत वालों के
अब इन नामों के बदले तुम नाम नजीर, निराला लिख
लिखना बाद में दिखता है यह वैसा-ऐसा उपमा में
पड़े हुए पाँवों के छाले को पहले तू छाला लिख
आने दो महबूब वक्त वह जब बोलूँगा मैं तुमसे
मेरे लब पर लिखो तिश्नगी अपने लब पर प्याला लिख
सत्ता का अधिकारी बन जुम्मन जमीन को हड़प गया
प्रजातन्त्रा की जनता भटकी फिरती बनकर खाला लिख
जिस तरह रह रहा हूँ मैं अपने ही देश में ऐ यारो
लिखना अगर तखल्लुस मेरा तो फिर देशनिकाला लिख।