स्याह धब्बे / सोनी पाण्डेय
वह आज भी महसूसती है
कुछ बजबजाता
लिसलिसा...बदबूदार सा
बहता
जांघों के बीच
और इतना रगड़ती झावें से पैर
कि उभरने लगते
रक्तिम निशान
दर्द की उभरती अनुभूति में
मन भर गिराती सिर से पाँव तक पानी
जब तक हाथ फटने नहीं लगते
धैर्य टूटने तक नहाने का उपक्रम करते हुए
स्याह धब्बों का इतिहास कुरेदते
भूगोल की सारी आकृतियाँ झांवें से रगड़- रगड़
लाल करती
भरपूर कोशिश करती की
बाहर निकलते स्नानघर से
लोग केवल और केवल
चोट के निशान गिने तन के
मन के स्याह धब्बे दबे रहें वैसे ही
जैसे दबा दिए गये थे
सत्रहवें साल में...
वह डरती है अन्धेरे से
रात से
आदमी से
आदमी की जात से
उनसे भी जो मौन रहे
उनसे भी जो चीखते रहे
उनसे भी जो गले लग जी भर रोए
डरती है रास्ते में साथ चलते उस मर्द से
जो बगल में बैठा बस में
बार -बार जबरन छुलाता है हाथ
उस मर्द के मुँह पर थूकते हुए डर जाती है माँ से
माँ की राख हो चुकी काया
एक दम से जी उठती है इस खौफ में कि
वह खोल देगी बरसों पुराना राज
जिसे घर के निचले तहखानें में छिपा मरी थी चैन से
बेचैन हो नाचने लगती है माँ
और वह थूकते -थूकते नथुनों में क्रोध भरे
डर जाती है माँ से...
रात में उस आदमी से कह भी नहीं पाती डर
जिसकी शरीर पर रेंगती हथेलियाँ
भर देती हैं जलन से
जलन वर्षों पुराना नासूर
लाइलाज कैंसर का अन्तिम चरण ज्यों दहकता
वह दहकती उस सबसे सुखद क्षणों में
जिसके लिए आदमी
आदमी से उतर आता है हैवानियत तक
जिसके लिए ऋषियों ने छोड़ दिया ईश्वरत्व का मोह
जिसके आकर्षण में बँधा आदमी
चाट लेता औरत के तलवे
जिसकी अनुभूति में उतरते वह कहता
यही स्वर्ग है
उस आदमी से वह
उतना ही डरती है
जितना डरती है मरी हुई माँ से
उसके अपनों के पैर उस दिन से उलटे है
जिस दिन वह मरी थी
मरी थी वह
भूत बन घूमने लगे अपने
मन का मरना भी कोई मरना है औरत का
वह तो बस देह भर जीती है
देह उस मर्द की जागीर
जो सोया है अभी अभी संतुष्ट हो
उलाहना देते हुए
यू अॉर फ्रिज्ड...
वह दहकते हुए आवेश को समेटे
टटोलती है स्याह धब्बे
दर्द टभकने लगता है
आँखों में उतरने लगता है स्याह ज़हर
वह पी कर हलाहल
मूंद लेती है आँख
नींद उतरने लगती है जिस्म में
दर्द की चुभन ही बस इलाज है
स्याह धब्बों की चुभन से...