भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

स्लेट / सुनीता जैन

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैंने कब कहा कि तुम आओ
या कि मैं आऊँगी

यह तो स्पष्ट है तुम्हारे घर से
कोई सड़क, इधर नहीं आती
मेरे पैरों ने भी नहीं बनाई पगडंडी
जो तुम्हारे रास्तों तक जाती

इन दूरियों में क्या कुछ है
वे कैसे जानेंगे
जो दूर नहीं रहते-

मुझे सँवरना नहीं होता
तुम्हें रिझाने
अवश्य सहज लगती हूँ
सलवट-सलवट साड़ी, धुले चेहरे में

तुम्हें भी तो कोई उतावली नहीं
मुझे पाने
मुझ से कुछ छुपाने,
तुम्हारी लापरवाही तुम्हें महँगी नहीं पड़ती
बस कभी-कभी
कभी-कभी जी करता है
तुम आते
मैं आती,
और छोटे बच्चे की,
पहली-पहली स्लेट से भी छोटी
दुनिया हो जाती।