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स्वदेशमहिमा / सीताराम झा

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उत्कर्ष
सम्प्रति पण्डितवृन्दक हो गणना,
जहि रूप गणेशक सम्मुख,
अंडिक तेलक दीपक टेम
यथा लघु होइछ गेसक सम्मुख,
तुच्छ यथा चमरी-मृग पुच्छक
बाल सुकामिनि-केशक सम्मुख,
स्वर्ग तथा अपवर्ग दुहू सुख
होइछ तुच्छ स्वदेशक सम्मुख।
उदाहरण
सोनक मन्दिरमे निशि-वासर
वास, स्वयं टहलू पुनि भूपति,
भोजन दाड़िम दाख, सुधा-
रस-पान, सखा नरराजक सन्तति,
पाठ सदा हरि-नाम सभा बिच,
पाबि एते सुख-साधन सम्पति,
नै बिसरै’ अछि कीर तथापि
अहा ! निज नीड़ सम्बन्धुक संगति।
निष्कर्ष
मैथिल वृन्द ! उठू मिलि आबहूँ
काज करू जकरा अछि जे सक,
पैर विचारि धरू सब क्यौ
तहि ठाम जतै नहि हो भय ठेसक,
पालन जे न करैछ कुल-क्रम-
आगत भाषण-भूषण-भेषक
से लघु कूकूर-कीड़हुसौं
जकरा नहि निश्छल भक्ति स्वदेशक।