भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

स्वदेश की माटी / आन्ना अख़्मातवा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

                               धरती पर नहीं है हमसे अधिक अश्रुहीन जन,
                               अधिक गर्वीले और सरल मन।
                               1922

           नहीं कभी धारण करते हम इसे हार शृंगार में,
           नहीं रुदन कष्टों हित करते कविता के व्यापार में।
           अरे स्वप्न में इसकी कोई तुलना भी हम कर पाते,
           कष्ट निवारण करती कड़वी निद्रा के संसार में।

अपने मन में कभी नहीं यह उठता तनिक विचार भी
भला कभी हम सौदा करते इसका किसी प्रकार भी !
स्मरण नहीं है हमें तनिक भी, किया कभी यह ध्यान भी,
चाहे कितने दीन-हीन हों, पाएँ कष्ट अपार भी।

           हाँ, अपने इन जूतों पर जो लगी हुई है माटी,
           यह दाँतों पर जमा हुआ जो मैल देखते, साथी।
           जिसको सदा रौंदते रहते अरे यही वह माटी,
           जिसे खून्दते, जिसे पीसते, जिसे कुचलते, साथी।

हम इसको कहते हैं अपना क्योंकि एक दिन, साथी,
इस माटी में मिल जाएँगे और बनेंगे माटी।

 
मूल रूसी से अनुवाद : रामनाथ व्यास ’परिकर’

और अब यही कविता मूल रूसी भाषा में पढ़िए
Анна Ахматова

Родная земля

И в мире нет людей безслёзней,
Надменнее и проще нас.

(1922)

В заветных ладанках не носим на груди,
О ней стихи навзрыд не сочиняем,
Наш горький сон она не береди́т,
Не кажется обетова́нным раем.

Не делаем её в душе своей
Предметом купли и продажи,
Хворая, бедствуя, немо́тствуя на ней,
О ней не вспоминаем даже.

Да, для нас это грязь на калошах,
Да, для нас это хруст на зубах.
И мы мелем, и месим, и крошим
Тот ни в чём не замешанный прах.

Но ложимся в неё и становимся ею,
Оттого и зовём так свободно — своею.

<1961>,
Больница в Гавани