भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
स्वदेश बिछोह / पुष्पिता
Kavita Kosh से
स्वदेश बिछोह में
शून्य-सा सन्नाटा
छूट जाता है साँसों के तलवों से
प्रलय-घोष के समानार्थक
धड़कती हैं धड़कनें।
आँखों के सूरज में है
एक धब्बा अँधेरा
पूर्ण सूर्यग्रहण-सा।
आँखों के आँसू
नहीं भर पाते
शून्य की शुष्कता
प्रणय वसुधा की प्राण-वायु से
जी हुई साँसों को
नहीं जिला पाती हैं
विदेशी फ्रेगरेंट हवाएँ।
अनुपस्थिति का शून्य
आँखों की पृथ्वी में
अंधेपन की तरह है
होंठों पर
गूँगेपन की भाषा है।
कानों में नहीं गूँजती है
कोई अनुगूँज।