स्वदेस / मनोज कुमार झा
टूटी भंगी ईटें उकड़ूँ, ढहे स्कूल से लाई गई
मुखिया के मुँहलगुवा से माँगकर
कुछ चुराकर भी, लुढ़का पिचका पितरिहा लोटा,
पीठ ऊपर टिनही थालियों की, हंडी के
बचाव में पेंदी पर लेपी गई मिट्टी करियाई
छुड़ाई नहीं गई आज शायद चढ़ना
नहीं था चूल्हे पर, एक जोड़ी कनटूटी प्यालियाँ,
कुछ भी नहीं चुराने के काबिल
कुछ भी लाओ कहीं से तो ललकित
घर ढूँढ़ता है थोड़ी सी ललाई
अभी तक खाली रही रात,
सात आँगन टकटोहने के बाद भी नहीं दो रात की निश्चिंती।
मुक्का मारूँ जोर से तो टूट जाएगी किवाड़ी
मगर भीतर भी तो वहीं आधा सेर चूड़ा,
दो कौर गुड़, कुछ गुठलियाँ इमली की
सबको पता ही तो है कि किसकी चूल्हे में कितनी राख
एक की अँगुलियों में लगी दूसरे की भीत की नोनी
एक को खबर कि दूजे के घड़े में कितना पानी -
उसको भी जो उखाड़ ले गया सरसों के पौधे,
उसको भी जो लाठी लिए दौड़ा पीछे।
जिसने भगाया मटर से साँड़,
वही तो तोड़ ले गया टमाटर कच्चा
माटी के ढूह से उठते रंग बदल के सिर -
कभी घरढुक्का, कभी घरैत
चार आँगन घूम आया लेकर सारंगी,
दो जने नोत दिया हो गया भोजैत।
जो खींच लाता था उछलते पानियों से रोहू
वो सूँघ रहा है बरातियों का जूठा पत्तल
एक किचड़ैल नाली लोटती चारों ओर
कभी सिरहाने तो कभी पैताने पानी।
फिर लौटना होगा खाली हाथ -
इसी भीगी साड़ी से पोछ लूँ माथा
सँझबत्ती दिखाने घरनी नहाई है दोबारा
मुनिया की माई का भी था उपास,
रखी होगी अमरूद की एक फाँक
या उसी का है घर जिसे डसा
विषधर ने चूहे के बिल से धान खरियाते
नहीं ठीक नहीं ले जाना यह साड़ी
किसी सेनुरिया की आखिरी पहिरन,
पहली उतरन किसी मसोमात की।
इतना गफ सनाटा - धाँय धाँय सिर पटकती छाती पर साँस
कोई हँसोथ ले गया रात का सारा गुड़,
चीटियाँ भी नहीं सूँघने निकली कड़ाह का धोअन
कुत्ते भौंकते क्यों नहीं मुझे देखकर,
कैसे सूख गया इनके जीभ का पानी
किसी मरघट में तो नहीं छुछुआ रहा
चारों ओर उठ गई बड़ी बड़ी अटारियाँ
तो क्या यहीं अब प्रेतों का चरोखर
लौट जाता हूँ घर, लौट जाऊँ मगर
किस रस्ते - ये पगडंडियाँ प्रेतों की छायाएँ तो नहीं।