भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

स्वप्न-2 / पीयूष दईया

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं शर्मिन्दा हूँ अपने शब्दों के लिए
जिन्हें आप पढ़ रहे हैं
-यह जानते हुए भी कि ये मेरे है
और आप पढ़ रहे हैं
जैसे कि मैंने इन्हें लिखा था
कभी गोया

ताकि बची रहे सारी साँसें

जीने में
कोई जग जाय
और शर्मिंन्दा न हो
दरअसल

यह स्वप्न है