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स्वप्न के हाथ में / समीर वरण नंदी / जीवनानंद दास

दुनिया भर की परेशानियाँ-देह की बीमारी
टीस उठती है दिल में, इसलिए सपनों के हाथ
मैं खुद को सौंप देता हूँ।

रात-दिन की लहरों पर, जो छायाएँ तैर आती हैं
उन्हीं की तह में है मेरा जीवन,
यदि हमारे मन में धरे होते केवल स्वप्न के हाथ
तो पृथ्वी के दिन-रात का आघात कोई झेल नहीं पाता
किसी का दिल बूढ़ा नहीं होता-
अगर सब चलते स्वप्न के हाथ धर कर।

आकाश छाया की लहर में हिचकोले खाकर
पूरे दिन और सारी रात प्रतीक्षा करते-करते
पृथ्वी की व्यथा, विरोध और यथार्थ
हृदय भूल जाता है सब
अन्तर जो चाहता है-भाषा,
इच्छा, पृथ्वी के कोने-कोने जाकर जिसे ढूँढ़ता है-
स्वप्न में वही सत्य होकर तैर उठता है।

मर्म में जितनी तृष्णा है
उसी की खोज में छाया और स्वप्न
के क़रीब तुम लोग आ जाओ-
तुम लोग आ जाओ सब।

भूल जाओ-
पृथ्वी की व्यथा, आघात-यथार्थ।
हमेशा की तरह निराली लहर पर एक-दूसरे का
हाथ पकड़ते हैं-
उनमें स्वप्न, केवल स्वप्न जन्म लेता है।
गोधूलि के धुँधले आकाश में
आकांक्षाओं का जन्म-मृत्यु आदि
और पृथ्वी के दिन-रात के शोर
वह नहीं सुनता।

संध्या नदी का जल, पत्थर पर जल धारा
आईने की तरह जाग उठते हैं इधर-उधर
अपने अन्तर में।
उनके भीतर-
हर घड़ी, स्वप्न, केवल स्वप्न का जन्म होता है।
पृथ्वी की दीवार के पार
टेढ़े-मेढ़े अनगिनत अक्षरों में
एक बार लिखी थी जो अन्तर की बात-
वही सारी व्यर्थता
उजाले-अंधेरे में मिटकर,
दिन के उजले पथ छोड़कर
धूसर स्वप्न के देश में पहुँच जाती है।
और हृदयाकांक्षा की नदी लहरें उठाकर तृप्त होती हैं।
तृप्त भी होती है तो तुमने नहीं जाना
पृथ्वी की दीवार पर
अस्पष्ट अक्षरों में लिख नहीं पाये
अपने अन्तर की बात
उजाले-अंधेरे में सब व्यर्थ हो जाता है।
पृथ्वी की यह अधीरता
ठहर जाती है हमारे हृदय में व्यथा
दूर धूल की राह छोड़कर
स्वप्न को ही गले लगा लेते हैं हम
उज्ज्वल प्रकाश से भरा दिन बुझ जाता है,
मनुष्य की आयु भी समाप्त हो जाती है।
पृथ्वी की वही पुरानी कहानी-
मिटा देती है उसके तमाम निशान।

काल के हाथ मिटा देते हैं और दूसरी सारी चीजे़ं
नक्षत्रों की भी आयु पूरी हो जाती है
किन्तु स्वप्न जगत-
चलता रहता है निरन्तर।