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स्वप्न गंधा ओ पलाशी / आकृति विज्ञा 'अर्पण'

स्वप्नगंधा ओ पलाशी...
आज तुमको मुक्त करके, मुक्ति का अपमान होगा,
क्या तुम्हें यह भान होगा?

क्या प्रिया तुम सुन सकोगी?
एक सरि का बर्फ होना।
गीत का अचके ठिठुरके,
मौन-सा इक हर्फ़ होना।

स्वर सधे सब चुप रहेंगे, प्रेम का जब गान होगा
क्या तुम्हें यह भान होगा?

संस्कृति तो देंह-सी भर,
तुम सहजतम चेतना हो।
अश्रु गंगा इसलिये है,
क्योंकि तुम ही वेदना हो।

आज गुरूता को अचानक, हीनता का भान होगा
क्या तुम्हें यह भान होगा?

चंद्रबिंदी चाँद की ज्यों,
खींच कर जाये उतारी।
प्रश्न को वनवास देकर,
धर्म की हर नीति हारी ।

भाव जिसमें दैन्यता के, उसके हाथों दान होगा
क्या तुम्हें यह भान होगा?