भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

स्वप्न जब सो जाते हैं / अंजू शर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

एक उनींदी सुबह जब समेटती है कई
अधूरे स्वप्नों को,
अधखुली आँखों से
विदा पाते हैं,
भोर के धुंधले तारे,
कुछ आशाओं को पोंछकर
चमकाते हुए,
अक्सर दिखती है,
खिड़की के बाहर,
फटी धुंध की चादर,
उससे तिरता
एक नन्हा मेघदूत,
जिसके परों पर चलके
आता है
चमकीली धूप का
एक नन्हा सा टुकड़ा
भर जाती है एक बक्से में
सारी सर्द ठिठुरती रातें,
रातें जो दबी हैं
स्वप्नों के बोझ तले,
जिनमे उलझते हुए,
वो भी देखा
जो अदृश्य है,
अगोचर है,
अनगिनित हाथ लम्बी
रश्मियों की बाहें,
जब घेरती हैं वजूद,
कालखंड के मध्य
झरता समय प्रवाह
स्टेचू बन करता है
फिर से
रात्रि के ओवर
कहने की प्रतीक्षा,
तब स्वप्न सो जाते हैं
एक मीठी लम्बी नींद,
मिटाने
अपनी दुर्गम यात्रा
की थकान...