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स्वप्न न बुनूँ... तो क्या करूँ / अनुपमा त्रिपाठी
Kavita Kosh से
ताना बाना है जीवन का
भुवन की कलाकृति
आँखें टकटकी लगाए ताक रही हैं
अनंत स्मिति
घड़ी की टिक टिक चलती
समय जैसे चलता चलता भी ...रुका हुआ
शिशिर की अलसाई हुई सी प्रात
झीनी झीनी सी धूप खिलती शनैः शनैः
शीतल अनिल संग संदेसवाहक आए हैं
सँदेसा लाये हैं
उदीप्त हुई आकांक्षाएँ हैं
...ले आए हैं मधुमालती की सुरभि से भरे
कुछ कोमल शब्द मुझ तक
...अनिंद्य आनंद दिगंतर
तरंगित भाव शिराएँ हैं...!!
गुनगुनी सी धूप और ये कोमल शब्द-
सुरभित अंतर
कल्पना दिगंतर
भाव झरते निरंतर
स्वप्न न बुनूँ... तो क्या करूँ...??