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स्वप्न लाखों उनींदे नयन में बसा / जितेन्द्रकुमार सिंह ‘संजय’

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स्वप्न लाखों उनींदे नयन में बसा
रात भर नील नभ में जगा चाँद है।

दक्षजा रोहिणी का सलोना वदन
गौर हेमाभ कोमल कलेवर कला
पृष्ठ बिखरी अतुल केश जलधर-चमू
मंजुधर श्रुति-चषक में सुधारस ढला
पानकर कल्पना-अंक में झूलता
प्रीति परिपाक मोहक लगा चाँद है।
स्वप्न लाखों उनींदे नयन में बसा
रात भर नील नभ में जगा चाँद है॥

ऊर्ध्वकांक्षी पयोधर जड़े रत्न से
लोल लोचन अधर रक्त शतदल पले
नासिका चूमती झूलनी झूमती
वक्र भ्रूरेख आवर्त वेदी तले
पाँव पावन अलक्तक, बँधी पैजनी-
नाद झंकार मनहर ठगा चाँद है।
स्वप्न लाखों उनींदे नयन में बसा
रात भर नील नभ में जगा चाँद है॥

मन्दिरों में कभी दृष्टि चंचल फँसी
शिल्पपथ में त्रिभंगी खड़ी कामिनी
मध्यकालीन भारत कला-वीथिका
षोडषी रूप संवर्त में दामिनी
भा गयी किन्तु गूँगी न कुछ कह सकी
चित्त चिन्तन निरत-सा लगा चाँद है।
स्वप्न लाखों उनींदे नयन में बसा
रात भर नील नभ में जगा चाँद है॥

यज्ञ के संस्मरण की अनूठी कथा
यौवनज्वार आसक्त तारा हुई
देह-मरकत सिहरने लगी याद में
रूपसी प्रेयसी दृष्टि से ज्यों छुई
कामभार्या-सरोवर में छल जो किया
ब्राह्मणी-शाप-भय से भगा चाँद है।
स्वप्न लाखों उनींदे नयन में बसा
रात भर नील नभ में जगा चाँद है॥