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स्वप्न सागर-पार का बेकार है /वीरेन्द्र खरे अकेला
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स्वप्न सागर-पार का बेकार है
यार नौका से ख़फ़ा पतवार है
कान तेरे भर गया शायद कोई
बदला बदला सा तेरा व्यवहार है
है बहुत कड़की, उधारी है बहुत
उसपे ये सिर पर खड़ा त्यौहार है
बचके तूफ़ाँ से निकल आए तो क्या
सामने शोलों से पूरित पार है
लिस्ट आदर्शों की लटकी है जहाँ
वह बहुत सीलन भरी दीवार है
एक भी दिखती न खुशियों की दुकाँ
यह जगत पीड़ाओं का बाज़ार है
ऐ ‘अकेला’ बेच दे ईमान जो
आज कल सुख का वही हक़दार है