स्वप्न / जीवनानंद दास / मीता दास
पाण्डुलिपि समीप रखकर मैं धूसर द्वीप पर निस्तब्ध होकर बैठा था;
शिशिर झर रहा था फिसल कर धीरे-धीरे;
नीम की शाखों से एक अकेला पाखी उतर कर आया
और उड़ गया कोहरे में, ...कोहरों के सँग सुदूर घने कोहरे में
उसी के पँखों की हवा में शायद बुझ गया दीप ?
आहिस्ते-आहिस्ते दिलासलाई लिए अन्धकार में ढूँढ़ता फिरता हूँ,
जब जलाऊँगा दीप तो किसका चेहरा देख पाऊँगा
कह सकते हो ?
किसका मुख ?
...आँवले की शाखों के पीछे से
सींग की तरह टेढ़ा, नीला चान्द एक दिन जिसे देखा था क्या वही;
इस धूसर पाण्डुलिपि ने भी एक दिन देखा था वही सब कुछ ...आहा,
वह चेहरा धूसरतम लगता है शायद वही थी पृथ्वी ।
फिर भी इस पृथ्वी के सब उजाले एक दिन बुझ गए,
पृथ्वी के सब गल्प, क़िस्से एक दिन जब ख़त्म हो जाएँगे,
मनुष्य भी जब नहीं बचे रहेंगे,
रहेगा सिर्फ़ तब भी मनुष्य का स्वप्न तबछ
वही चेहरा और मैं ही रहूँगा बचा उस सपने के भीतर ।।