Last modified on 9 सितम्बर 2020, at 22:19

स्वप्न / भाग १ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद

संध्या अरुण जलज केसर ले
अब तक मन थी बहलाती,
मुरझा कर कब गिरा तामरस,
उसको खोज कहाँ पाती

क्षितिज भाल का कुंकुम मिटता
मलिन कालिमा के कर से,
कोकिल की काकली वृथा ही
अब कलियों पर मँडराती।

कामायनी-कुसुम वसुधा पर पड़ी,
न वह मकरंद रहा,
एक चित्र बस रेखाओं का,
अब उसमें है रंग कहाँ

वह प्रभात का हीनकला शशि-
किरन कहाँ चाँदनी रही,
वह संध्या थी-रवि, शशि,तारा
ये सब कोई नहीं जहाँ।

जहाँ तामरस इंदीवर या
सित शतदल हैं मुरझाये-
अपने नालों पर, वह सरसी
श्रद्धा थी, न मधुप आये,

वह जलधर जिसमें चपला
या श्यामलता का नाम नहीं,
शिशिर-कला की क्षीण-स्रोत
वह जो हिमचल में जम जाये।

एक मौन वेदना विजन की,
झिल्ली की झनकार नहीं,
जगती अस्पष्ट-उपेक्षा,
एक कसक साकार रही।

हरित-कुंज की छाया भर-थी
वसुधा-आलिगंन करती,
वह छोटी सी विरह-नदी थी
जिसका है अब पार नहीं।

नील गगन में उडती-उडती
विहग-बालिका सी किरनें,
स्वप्न-लोक को चलीं थकी सी
नींद-सेज पर जा गिरने।

किंतु, विरहिणी के जीवन में
एक घड़ी विश्राम नहीं-
बिजली-सी स्मृति चमक उठी तब,
लगे जभी तम-घन घिरने।

संध्या नील सरोरूह से जो
श्याम पराग बिखरते थे,
शैल-घाटियों के अंचल को
वो धीरे से भरते थे-

तृण-गुल्मों से रोमांचित नग
सुनते उस दुख की गाथा,
श्रद्धा की सूनी साँसों से
मिल कर जो स्वर भरते थे-

"जीवन में सुख अधिक या कि दुख,
मंदाकिनि कुछ बोलोगी?
नभ में नखत अधिक,
सागर में या बुदबुद हैं गिन दोगी?

प्रतिबिंब हैं तारा तुम में
सिंधु मिलन को जाती हो,
या दोनों प्रतिबिंबित एक के
इस रहस्य को खोलोगी

इस अवकाश-पटी पर
जितने चित्र बिगडते बनते हैं,
उनमें कितने रंग भरे जो
सुरधनु पट से छनते हैं,

किंतु सकल अणु पल में घुल कर
व्यापक नील-शून्यता सा,
जगती का आवरण वेदना का
धूमिल-पट बुनते हैं।

दग्ध-श्वास से आह न निकले
सजल कुहु में आज यहाँ
कितना स्नेह जला कर जलता
ऐसा है लघु-दीप कहाँ?

बुझ न जाय वह साँझ-किरन सी
दीप-शिखा इस कुटिया की,
शलभ समीप नहीं तो अच्छा,
सुखी अकेले जले यहाँ

आज सुनूँ केवल चुप होकर,
कोकिल जो चाहे कह ले,
पर न परागों की वैसी है
चहल-पहल जो थी पहले।

इस पतझड़ की सूनी डाली
और प्रतीक्षा की संध्या,
काकायनि तू हृदय कडा कर
धीरे-धीरे सब सह ले

बिरल डालियों के निकुंज
सब ले दुख के निश्वास रहे,
उस स्मृति का समीर चलता है
मिलन कथा फिर कौन कहे?

आज विश्व अभिमानी जैसे
रूठ रहा अपराध बिना,
किन चरणों को धोयेंगे जो
अश्रु पलक के पार बहे

अरे मधुर है कष्ट पूर्ण भी
जीवन की बीती घडियाँ-
जब निस्सबंल होकर कोई
जोड़ रहा बिखरी कड़ियाँ।

वही एक जो सत्य बना था
चिर-सुंदरता में अपनी,
छिपा कहीं, तब कैसे सुलझें
उलझी सुख-दुख की लड़ियाँ

विस्मृत हों बीती बातें,
अब जिनमें कुछ सार नहीं,
वह जलती छाती न रही
अब वैसा शीतल प्यार नहीं

सब अतीत में लीन हो चलीं
आशा, मधु-अभिलाषायें,
प्रिय की निष्ठुर विजय हुई,
पर यह तो मेरी हार नहीं

वे आलिंगन एक पाश थे,
स्मिति चपला थी, आज कहाँ?
और मधुर विश्वास अरे वह
पागल मन का मोह रहा

वंचित जीवन बना समर्पण
यह अभिमान अकिंचन का,
कभी दे दिया था कुछ मैंने,
ऐसा अब अनुमान रहा।

विनियम प्राणों का यह कितना
भयसंकुल व्यापार अरे
देना हो जितना दे दे तू,
लेना कोई यह न करे

परिवर्त्तन की तुच्छ प्रतीक्षा
पूरी कभी न हो सकती,
संध्या रवि देकर पाती है
इधर-उधर उडुगन बिखरे

वे कुछ दिन जो हँसते आये
अंतरिक्ष अरुणाचल से,
फूलों की भरमार स्वरों का
कूजन लिये कुहक बल से।

फैल गयी जब स्मिति की माया,
किरन-कली की क्रीड़ा से,
चिर-प्रवास में चले गये
वे आने को कहकर छल से

जब शिरीष की मधुर गंध से
मान-भरी मधुऋतु रातें,
रूठ चली जातीं रक्तिम-मुख,
न सह जागरण की घातें,

दिवस मधुर आलाप कथा-सा
कहता छा जाता नभ में,
वे जगते-सपने अपने तब
तारा बन कर मुसक्याते।"

वन बालाओं के निकुंज सब
भरे वेणु के मधु स्वर से
लौट चुके थे आने वाले
सुन पुकार हपने घर से,

किन्तु न आया वह परदेसी-
युग छिप गया प्रतीक्षा में,
रजनी की भींगी पलकों से
तुहिन बिंदु कण-कण बरसे

मानस का स्मृति-शतदल खिलता,
झरते बिंदु मरंद घने,
मोती कठिन पारदर्शी ये,
इनमें कितने चित्र बने

आँसू सरल तरल विद्युत्कण,
नयनालोक विरह तम में,
प्रान पथिक यह संबल लेकर
लगा कल्पना-जग रचने।

अरूण जलज के शोण कोण थे
नव तुषार के बिंदु भरे,
मुकुर चूर्ण बन रहे, प्रतिच्छवि
कितनी साथ लिये बिखरे

वह अनुराग हँसी दुलार की
पंक्ति चली सोने तम में,
वर्षा-विरह-कुहू में जलते
स्मृति के जुगनू डरे-डरे।

सूने गिरि-पथ में गुंजारित
श्रृंगनाद की ध्वनि चलती,
आकांक्षा लहरी दुख-तटिनी
पुलिन अंक में थी ढलती।

जले दीप नभ के, अभिलाषा-
शलभ उड़े, उस ओर चले,
भरा रह गया आँखों में जल,
बुझी न वह ज्वाला जलती।

"माँ"-फिर एक किलक दूरागत,
गूँज उठी कुटिया सूनी,
माँ उठ दौड़ी भरे हृदय में
लेकर उत्कंठा दूनी।

लुटरी खुली अलक, रज-धूसर
बाँहें आकर लिपट गयीं,
निशा-तापसी की जलने को
धधक उठो बुझती धूनी

कहाँ रहा नटखट तू फिरता
अब तक मेरा भाग्य बना
अरे पिता के प्रतिनिधि
तूने भी सुख-दुख तो दिया घना,

चंचल तू, बनचर-मृग बन कर
भरता है चौकड़ी कहीं,
मैं डरती तू रूठ न जाये
करती कैसे तुझे मना"

"मैं रूठूँ माँ और मना तू,
कितनी अच्छी बात कही
ले मैं अब सोता हूँ जाकर,
बोलूँगा मैं आज नहीं,

पके फलों से पेट भरा है
नींद नहीं खुलने वाली।"
श्रद्धा चुबंन ले प्रसन्न
कुछ-कुछ विषाद से भरी रही

जल उठते हैं लघु जीवन के
मधुर-मधुर वे पल हलके,
मुक्त उदास गगन के उर में
छाले बन कर जा झलके।

दिवा-श्रांत-आलोक-रश्मियाँ
नील-निलय में छिपी कहीं,
करुण वही स्वर फिर उस
संसृति में बह जाता है गल के।

प्रणय किरण का कोमल बंधन
मुक्ति बना बढ़ता जाता,
दूर, किंतु कितना प्रतिपल
वह हृदय समीप हुआ जाता

मधुर चाँदनी सी तंद्रा
जब फैली मूर्छित मानस पर,
तब अभिन्न प्रेमास्पद उसमें
अपना चित्र बना जाता।