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स्वप्न / शंख घोष / प्रयाग शुक्ल
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अः, पृथिवी। अभी टूटी नहीं है मेरी नींद।
स्वप्न के भीतर है तुमुल पहाड़
परतों में खुली जा रही हैं उसकी पपड़ियाँ
खुली जा रही हें हरी पपड़ियाँ, भीतर और भीतर,
खोल रही हैं अपने को,
बीच में उनके उग रहे हैं धान खेत
जब आएगी लक्ष्मी
लक्ष्मी जब आएगी
तब हाथों में लिये कृपाण, पाइप गन,
कौन हैं वे जो चले आ रहे हैं लूटने फ़सल
अः पृथिवी, अभी टूटी नहीं है मेरी नींद।
मूल बंगला से अनुवाद : प्रयाग शुक्ल
(हिन्दी में प्रकाशित काव्य-संग्रह “मेघ जैसा मनुष्य" में संकलित)