स्वयंवरा / रेखा
मैं
चिरकाल से बहती धारा हूँ
आज तय किया है मैंने-
सागर को नहीं वरूँगी
इसी से दिशाहीन
ठिठककर खड़ी हूँ
धारा वापिस नहीं लौटती कभी
पर मैंने
ठुकरा दी है अपनी
नियति
मैं सागर को नहीं वरूँगी
सागर
जो हर धारा को
समेट लेता है खामोश
चुपचाप निगल लेता है
हर नन्हे अस्तित्व को
और
हर नदी से
उसका नाम छीन लेता है
आज
मेरे दौड़ते हुए पाँवों में
सँशय का तीर चुभ गया है
वह थमी हुई धारा हूँ
जिसका रास्ता गलत हो गया है
अब
एक फैलता हुआ
सैलाब हूँ मैं
बिखरते जाना ही
अर्थ है
मेरा
वह भी तो पानी है
जो पानी में नहीं डूबता
डूबकर ही
अनन्त पारावार की
मापना गहराई
मुझे नहीं स्वीकार
छूना चाहती हूँ
अपनी तरलता से
मरुस्थल की तपिश
रेगिस्तान-
जिसे भयानक अँधड़ों ने
झगझोरा है
झुलसाया है बरसती लपटों ने
अपनी रेत में
टूट-टूटकर बिखरा है जो
और छला गया है सदा
मेरी इच्छा की
मरीचिका से
जो मेरे स्पर्ष से
फूटकर कोंपलों में
इतराया है
जो मुझे छू भर लेने को
सुलगता रहा है सदियों तक
आज
मैं उसी तरफ बहना चाहती हूँ
और
रेगिस्तान की आग पीकर
सूख जाना चाहती हूँ
मैं
वह तरलता हूँ
जो रेत में बिखर जाती है
वह धारा हूँ
जिसने ठोकर मारी है
सागर की महत्ता को
जिसने रेगिस्तान को वरा है
स्वयंवरा हूँ
मैं
1984