स्वयंवर / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'
थी जुड़ी स्वयंवर सभा
वीर, सुकुमार अनेक पधारे थे,
नव हर्ष सिन्धु ने जहाँ
सहज ही अपने ज्वार उभारे थे।
मैं उसी सिन्धु में
बज्रशिला-सा कूद पड़ा क्रोधित होकर,
उस मधुर पर्व पर
बज्रपात-सा अचानक अशुभंकर।
।तुराज समुन्नत हैं
अखण्ड वसुधा पावन सद्गन्धती,
बीरे-बीरे-से हैं रसाल
कोकिला हो उठी गानवती।
अलियों कलियों के रास-रंग
हैं जगा रहे मन की गलियाँ,
बाहर की वयथा कहें कैसे,
भीतर क्या कम हैं रँगरलियाँ?
दूल्हन-सी सजी हुयी काशी
जगमगा रहा था अंग-अंग,
हर ओर मधुरता छलक रही
निखरा जीवन का रंग-रंग।
हर अधर मधुर मुस्कान धरे
हर ओर ज्योत्स्ना थिरक रही,
प्राणों के हिमगिरि से पावन
आनन्द सुरधुनी धार वही।
हैं ब्रह्ममवादिनी लहर लहर
गंगा की स्वस्ति पाठ करतीं।
मांगलिक कलश चौकें मनोज्ञ
सांस्कृतिक चेतना संचरती।
सोपान प्रथम है राका का
पुलकित हो रहे सकल तारे,
निर्मल नीरव अम्बर असीम
नीलाम्बर रत्निल विस्तारे।
धरती को अम्बर, अम्बर को
धरती अनिमेष निहार रही,
भावना रश्मियों को अपनी
अपने में मौन प्रसार रही।
आकण्ठ चन्द्रिका में डूबे
गृह-मन्दिर राजभवन सारे,
भीतर-भीतर कुलबुला रहे
भावना-सिन्धु में सुख-तारे।
ग्ंगा की नीरव धारा पर
चन्द्रिका रश्मियों का नर्त्तन,
दर्शनरत नक्षत्रों का हो
ज्यों धुला हुआ निर्मल दर्पण।
हर ओर शन्ति सद्भाव धर्म
अपने-अपने शृंगार किये,
जीवन के सुख की सुधाधार
से भरे हुए सानन्द हिये।
चन्द्रिका स्नानहित विधुवदना
बालाएँ उपवन में आयीं,
मधुमत्त लताएँ लज्जित हो
स्वागत में झुकीं मुस्कुरायीं।
म्ृण्य में चिन्मय का अनुपम
क्रती अभिनव संचार चली
स्ुमनों में कलियों में नूतन
श्रृंगार धार विस्तार चली।
अधखुले शुभ्र नव अंगों से
श्रीदीप्ति छहरती चिर नवीन,
मलयालिन कर कोमलस्पर्श
सुख पाता हो जाता अदीन।
रस, रूप, रंग की समन्विता
जाज्वल्यमान प्रतिभाओं-सी,
हैं चम्पा, जुही, चमेली की
अभिनव गन्धिल धाराओं-सी।
अपने अदृश्य शर-चापों से
सब पर करती अधिकार चली,
भूलोंक विजयिनी-सी अखण्ड
जग का करती शृंगार चली।
अम्बर पर राका ने अपना
मणिकोष अनन्त बिखेरा है,
विधु की सहचरी रश्मियों का
कुछ क्षण का और बसेरा है।
तम की तरंग मालाओं ने
इस लोक द्वीप को घेरा है।
बाहर-बाहर तम कम है पर
भीतर अँधियार घनेरा है।
धीरे-धीरे निज मौन
तोड़ते जाते हैं सब द्विज-कुटीर।
आ रहा सवेरा परम रम्य
प्राणों में भरता शचु समीर।
आ रहे दिवाकर प्राची से
कर रहे कर्म-प्रेरणा दान,
चेतना जग उठी कण-कण में
आलोकित हैं विधि का विधान।
सज उठी स्वयंवर सभा
भव्य वन्दनवारों से द्वारों से
कोमल कलियों से, पत्रों से,
उत्फुल्ल गुलाब कुँवारों से।
सद्गन्ध सिंचिता रंगभूमि
आपूरित मधुर बहारों से
सिंहासन आसन गरिमामय
हो उठे वीर सुकुमारों से।
सहसा मन वांछित रसधारा
यौवन के संगम में छायी,
उद्वेलन करती हुई प्राण में
मादकता भरती आयी।
हर प्यासे में थी आह बढ़ी
विद्युल्लतिका के दर्शन हों,
वरमाल कझठ में कब आये
कब पूर्ण धन्य यह जीवन हो।
पुखिल हो गया हृदय मन्दिर
साँसो की गति में प्रगति हुई,
डोली प्रज्ञा की कोर-कोर
चंचला स्वयं ही सुमति हुई।
है कौन खींचता बरबस मन को
अपनी ओर मौन स्वर में,
सुकुमार वेदना जगा रही
धीरे-धीरे उर-अन्तर में।
सपनों के कोमल इन्द्रधनुष
झलमला उठे उर अम्बर पर,
पर कौन जानता क्रूर काल
हर ले जायेगा सब छिपकर।
तीनों सुकुमारी बालाएँ
सखियों सँग मण्डप में आयीं,
रश्मियाँ रूप नवयौवन की
हर ओर मनोहर बिखरायीं।
कल्पना मूर्त्ति साकार सार
चैतन्य हो उठी डोल उठी,
उस रंगभूमि के कण-कण में
अमरत रस अभिनव घोल उठी।
देखतेरूप् की राशि अतुल
हो उठे समुन्नत सहज नयन,
खिलखिला उठे थे प्राणाम्बुज
जगमगा उठे थे कमलानन।
हे देव! छया के पट खोलो
जगमगा उठे फिर सुप्त-भाग,
यदि हो न सका यह सत्य
आज, तो छूटे जग जागे विराग।
जीवन की ज्योति जगमगाई
उद्दीप्त हो उठा वर-मण्डल,
चिन्तन के अम्बर पर उभरे
भावों के तारक-पुन्ज नवल।
व्ह अतुल छटा छवि की
च्ुपके-चुपके नयनों में समा रही
कामना विरहिणी-सी व्याकुल
प्राणों में हलचल मचा रही।
रह गये स्वयंवर मण्डप में
अनिमेष दृगों के खंजन दल,
अप्रतिम रूप की सुधा
पान कर रहा नृपों का श्रीमण्डल।
पलकें उठतीं तो कँुवरों के
उर में प्रभात हो जाता है,
गिरतीं तो घिरता अन्धकार
घिरकर क्षण में गहराता है।
मृण्मय-चिन्मय का अद्वितीय
संगम पीयूषी धारा-सा,
पीकर भी प्यासा रहा
जीतकर भी रहता ज्यों हारा-सा।
कर में वरमाला अति प्रफुल्ल
उत्फुल्ल कमल सौभाग्यवन्त,
अनछुए कुसुम से अंग
विभूषित कर रहै हैं भूषण-प्राणवन्त।
कामना कुसुम का सूत्रधार
मन है मन्मथ का सहचारी,
करता है उर का अनावरण
हो सके अगर सद्व्रतधारी।
यौवन के गन्धिल झोंकों में
स्ंायम के उन्नत श्रृंग गिरे,
मादक धराओं में गिरकर
सब डूब गये फिर नहीं तिरे।
है शेष नहीं रहती निजता
सम्पूर्ण समर्पण के क्षण में,
पर कहाँ अधूरे अधकचरे
टिक पाते हैं अपने प्रण में?
व्यय हो जाते हैं प्राण पूर्ण
प्राणों के ही संरक्षण में
पर विजय पा सका कौन
धरा पर जीवन के अनन्त रण में।
है जुड़ी स्वयंवर सभा
कि प्यासे हिरनों का जमघट-सा है,
यह याकि अबोले अरमानों का
सजा हुआ पनघट-सा है।
नर जीवन का सौन्दर्य सिमटकर
यौवन साँचे मध्य ढला
शुचि अंगराग अनुराग कणों से
होश उडा़ता हुआ चला।
लो होने लगा अंकुरण मधुमय
भावों की वर क्रीड़ा का,
हैं करने लगीं कनक लतिकाएँ
मधुर दान उर पीड़ा का।
नव दृग के व्याध असंख्य
शरों से करने लगे प्रहार प्रबल,
सब नृप, कुमार शरविद्ध हो रहे
ज्यों बेबस मृग हंस निबल।
प्रणयाकांक्षा के बन्धन में,
जब कोई भी बँध जाता है,
अपने भीतर की अबुझ आग में
तिल-मिल कर जल जाता है।
है एक रत्न जो जगा रहा
आतुरता सबके उर-अन्तर।
कामना सुहागिन हो न सकेगी
यहाँ किसी की जीवन भर।
जो नयनों से करके प्रवेश
प्राणों तक ज्योति जगाती है,
वह सुघर सलोनी छवि लोनी-सी
सब जीवन खा जाती है।
ओ मौन भरे सौन्दर्य!
मौन रहकर भी सब कह जाते हो,
हो तुम्हीं धरा पर लाते फिर,
फिर पीछा तुम्हीं छुडा़ते हो।
वर-मालाओं से शोभित कर
अरुणाम्बुज से बालाओं के,
हैं इच्छित वर की ओर बढ़ रहे
पग मन की आशाओं के।
इस घूर्णित कालचक्र में
कुछ भी स्थिर न यहाँ रह पाता है,
आता है कभी प्रकाश
कभी तो तम अपार छा जाता है।
है कौन जानता यहाँ
घड़ी भर में क्या घटने वाला है,
रस-रास-रंग के मध्य
क्षणों में जगने वाली ज्वाला है।
बैठे थे मौन अतिथि नृप गण
उर आशओं के दीप लिये,
पर देवव्रत ने निपट निराशा
के घन-मण्डल घेर दिये।
फिर एकाएक सभा में
भीषण सिंहनाद गुंजार हुआ,
सबके स्वप्निल अन्तर्मन में
अद्भुत भय का संचार हुआ।
" हो सावधान! में देवव्रत
घोषणा सभा में करता हूँ।
जो हो समर्थ रक्षा कर ले,
सब कन्याओं को हरता हूँ।
हैं चारों तरफ मृत्यु के बादल,
घुमड़ रहे अब मत हिलना।
आसन से वह ही उठे,
मृत्यु से जिसे शीघ्र ही हो मिलना।
ये मनोनीत कुलवधुएँ मेरी
इन्हें न कोई छू सकता,
कुरुकुल का हैं मंगल सिंगार
देखूँ तो कौन इन्हें वरता?
मिट्टी के पुतलों!
वीरों की भाषा बस वीर समझते हैं,
याचक बनतें हैं नहीं
सिंह इच्छित हर वस्तु झपटते हैं।
मेरे प्रचण्ड रोषानल में
गिरने का कुछ साहस न करो,
जाओ जाकर के जियो चैन से
व्यर्थ न मेरे हाथ मरो।
हे वीरों! बढ़ो राजकन्याओं को
निज रथ पर बैठा लो,
पथ की बाधाओं को क्षण में
बस टुकड़े-टुकड़े कर डालो। "
इतना कहकर कन्याओं को
बलपूर्वक रथ पर बैठाया,
वीरों को कर संकेत
हस्तिनापुर पथ पर था दौड़ाया।
हो सका प्रकाश नहीं क्षणभर
तमसाविल जीवन गव्हर में,
बस जलती-बझती रही भावना
ज्योति क्षणिक उर-अन्तर में।
जग उठी चेतन क्षणभर को थी,
भीष्म पितामह की सोेयी,
डर-नभ पर बिजली की रेखाएँ
खींच रहा मानो कोई।
है किन्तु काल की गति अमोघ
मुश्किल रहती हर ओर खड़ी
थी किये हुए पद दलित प्रणशिला
नियति नटी खिलखिला पड़ी।
"सुन अरे भीष्म! सब कुछ होकर भी
कुछ न कभी हो पायेगा,
प्रण के सूने से खँडहर में
तू घुट-घुटकर खो जायेगा।
तेरे जीवन की बगिया में
हैं कहाँरूप, रस, गंघ लिखे,
बस शुष्क वृक्ष से शीत-ताप के
घोर सघन प्रतिबन्ध लिखें।
है नहीं तुम्हारे अन्तःपुर हित
ज्वार भरी चँादनी लिखी,
प्राणों में भर दे रम्य शान्ति
जो वह न मधुर रागिनी लिखी।
बस प्रणय सुधाघट छोड़
उपेक्षा के विष कुम्भ पियो प्यारे!
संकल्पों की ज्वालाओं में
बस जलते हुए जियो प्यारे!
मैं विवश न कुछ भी कर सकती
सुख-दुख दोनों से ही वंचित;
दे सकती उसको वही कि-
जिसको जो कुछ भी होता संचित।"