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स्वयंसिद्धा स्त्री / निधि सक्सेना
Kavita Kosh से
स्वयंसिद्धा है वो
परन्तु जब प्रेम में होती है
तब भूल जाती है स्वयं को...
अपने हाथों से बांध लेती है बेड़ियाँ
पहन लेती है हथकड़ियाँ
कैद कर लेती है खुद को
अनुराग के धागों में...
स्वत: प्रेरित संकल्प की तरह...
अपनी इच्छाओं को करीने से टांक देती है
तुम्हारे आकाश में...
अपनी अतुल्य शक्ति को छिपा देती है
वात्सल्य की तहों में ...
सुनो...पर तुम न भूलना
उसका ये स्व विलोपन...
बांधना उसे व्यंजनाओं से
उसके मन को पहनाना अभिमान के जेवर
जकड़े रहना नेह की बेड़ी से...
आज़ाद रखना उसका स्व
कि भारहीन पैरों से वो थिरके...
उमंग के कर्णफूल पहने...
तुम्हारे खामोश किस्सों पे सरगम सी थिरकी है वो
तुम कोई मधुर सा गीत बनो तो बात बनें...