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स्वयं अपने ही नीचे दबे हम / ओसिप मंदेलश्ताम

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यह कविता स्तालिन के बारे में है। इसी कविता के कारण कवि को 1934 में निर्वासन की सज़ा मिली थी।
स्वयं अपने ही नीचे दबे हम
जी रहे हैं यह जीवन
चिन्ता नहीं हमें कोई देश की
जी रहे हैं जिसमें उस परिवेश की
इतने धीमे स्वरों में बातें करते हैं हम
कि वे सुनाई नहीं देतीं किसी को
चाहे हमसे हो दूर कोई सिर्फ़ दस क़दम
कहाँ पकड़ा जाए उसे इस रात
वो जो कह पाया अभी सिर्फ़ आधी ही बात
बताएगा तुम्हें वह पहाड़ का वासी
क्रेमलिन में छिपा जो लेता है उबासी
उसकी मोटी उँगलियाँ हैं केंचुए-सी चिकनी
नाक के नीचे उगी हैं मूँछें काली घनी
शब्द हैं वज़नी हमेशा विश्वास से भरे
पाँच सेरा बाट उसकी बातों में जड़े
तिलचट्टे हँस रहे हैं उसको घेरे खड़े
च़मक रहे हैं जूते उसके ख़ूबसूरत हैं बड़े
पतली गर्दनों वाले कीट-कृमि नेता
उसके चारों ओर जमा हैं
और वह उनका चहेता
अर्धमानव सब खिदमत करते
वह है विजेता
कोई कुनमुना रहा है
कोई झुनझुना रहा है
कोई म्याऊँ करे धीमे से
कोई सनसना रहा है
वह अकेला मस्त है
भोग में व्यस्त है
नाल की तरह ठोंक रहा है
आदेश पर आदेश
कहीं किसी की जाँघ पर
कभी किसी के माथे पर
कभी किसी की भौहों पर
किसी-किसी की आँखों पर
पर जब भी वह किसी को प्राणदण्ड देता है
तो मज़ा जैसे वह रसबेरी का लेता है
रसबेरी यह उसे बहुत-बहुत है भाती
उस असेटिया वासी की चौड़ी हो जाती है छाती

1934