स्वयं से संवाद / आरती कुमारी
कितना सुखद होता है
अपने होने को महसूस करना
और प्यार करना खुद को।
अलग-अलग रिश्तों में बँटकर
जैसे बँट जाती हूँ मैं ही कई हिस्सों में।
दूसरों की खुशी में कई बार घुलती मैं, जैसे अनचीन्हीं
अनजान हो गई हूँ अपने ही अस्तित्व से।
मगर तभी कहीं सुदूर एकान्त में
कोई गा रहा होता है
स्नेहिल शब्दों का मधुर गीत
जहाँ सालों भर खिलते हैं फूल
जहाँ हमेशा गूँजता रहता है
कल-कल झरनों का संगीत
जहाँ नदियाँ अठखेलियाँ करती हैं नौकाओं के साथ।
जहाँ सूरज अपनी किरण बाँहे फैलाए
पुचकारता रहता है पेड़ पौधोें को हमेशा
जहाँ रात होते ही रुपहली चाँदनी ढंक लेती है
सबकुछ अपने आगोश में।
आखिर कौन है, जिसने अपनी साँस की लड़ियों में
पिरोये हैं सुमधुर गीतों के शब्द।
वहाँ कोई दूसरा नहीं
पेड़ पौधें, , नदी झरनों
और सूरज चन्द्रमा के साथ थिरक रहा है
मेरा अपना ही अस्तित्व
उस नीरव एकान्त में।