भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

स्वर्गवासी पिता के नाम पाती / निर्मला पुतुल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बाबा! बहुत याद आते हो तुम
बहुत याद आते हो तुम
बैठे रहते थे तुम घर के सामने
चन्दन काका की देहरी पर
पहरेदार की तरह हाथों में डंडा पकड़े।
जवान बेटी का ख्याल कर
रात-रात भर सोते नहीं
हिदायत देते रहते थे
बेवजह घर से बाहर नहीं निकलने की
पियक्कड़ घूमते रहते हैं कुलही में
काम-धाम पूरा कर
घर आंगन में ही खेलो-कूदो, अपने दोस्तों संग
मुझे याद है एक बार की घटना
बाहर कुलही देहरी पर लगा रही थी मिट्टी
और तुम हमेशा की तरह बैठे थे
चन्दन काका की देहरी पर
कुलही से गुजरते पियक्कड़ ने
स्कर्ट खींच कर शरारत की थी मुझसे
देहरी से कूदकर लाठी लिए
दौड़ाया था तुमने, पूरी बस्ती में
और तब तक पीटा था उसने
तब तक थक नहीं गए थे तुम्हारे हाथ।
चन्दन काका की देहरी भी धंस चुकी है अब
देहरी के बगल में ही एक माझी थान
बाजार के ठेकेदार ने बनवा दिया है
दिन भर जुआरियों की जमात लगती है
खुलेआम पकड़ा-धकरी होती है
इसलिए बाहर कुलही का दरवाजा बंद रखती हूं हरदम
तुम होते थे तो घर आंगन में
रात-रात भर गर्मियों में खटिया बिछाकर
सोती थी बेफिक्र तुम्हारी बगल में
और देर रात तक करती रहती थी
चांद-सितारों से खूब बातें।
एक रात तो किसी मनचले ने
बगल गली से छुपकर मारा ढेला
जो तुम्हारे खटिया में जा गिरा था
चोट लगी थी तुम्हें खून निकल आया था
दहाड़ उठे थे तुम
और दीवार फांदकर दौड़ा लिया था उसे
उस दिन से तुम तीर धनुष लेकर सोते थे।
अब तो यहां बाजार के पियक्कड़
घर आंगन में कब्जा कर लिए हैं
छिप जाती हूं अपने ही घर आंगन में डर से
सो जाती हूं कई बार भूखे-प्यासे।
रात-रात भर खुला रह जाता है बाहर का दरवाजा
कभी-कभी तो आंगन का दरवाजा भी
आधी रात में सुनाई देती है
किसी का फसार-फुसुर और
अपने बंद दरवाजे की फांक से झांकती हूं
एक मोटा लंबा आदमी
अपनी फुलपेंट की चैन लगाते हुए
एक महिला उसके हाथों में
भर लोटा पानी और साबुन देते हुए।
बाबा!
इन्हीं लोगों ने छीना है बचपन
छीने हैं मेरे बिन ब्याहे सपने
मेरे हिस्से का वो खुला आकाश
मेरी उन्मुक्त हंसी, मेरी जवानी
कैद होकर रह गयी हूं मैं
एक कमरे में जीवन गुजार रही हूं
बाबा! बहुत याद आते हो तुम...!