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स्वर्ग सरि / चन्द्रकुंवर बर्त्वाल

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मंदाकिनी घाटी को समर्पित एक कविता

स्वर्ग सरि मंदाकिनी, हे स्वर्ग सरि मंदाकिनी !
मुझको डुबा निज काव्य में, हे स्वर्ग सरि मंदाकिनी ।

गौरी-पिता-पद नि:सृते, हे प्रेम-वारि-तरंगिते
हे गीत-मुखरे, शुचि स्मिते, कल्याणी, भीम मनोहरे ।
हे गुहा-वासिनि योगिनी, हे कलुष-तट-तरु नाशिनी
मुझको डुबा निज काव्य में, हे स्वर्ग सरि मंदाकिनी !

मैं बैठ कर नवनीत कोमल फेन पर शशि बिम्ब-सा
अंकित करूँगा जननि तेरे अंक पर सुर-धनु सदा ।
लहरें जहाँ ले जाएँगी, मैं जाऊँगा जलबिंदु-सा
पीछे न देखूँगा कभी, आगे बढूँगा मैं सदा ।
हे तट-मृदंगोत्ताल ध्वनिते, लहर-वीणा-वादिनी !
मुझको डुबा निज काव्य में, हे स्वर्ग सरि मंदाकिनी ।