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स्वर्णपंखी साँझ / रमेश चंद्र पंत
Kavita Kosh से
शाम सिंदूरी
गगन लोहित हुआ !
कुहनियों के
बल, हथेली पर टिकाकर
गाल, लेटी धूप
मुग्ध मन से
है निरखती स्वर्णपंखी
साँझ का यह रूप
द्वीप मरकत
भाल पर शोभित हुआ !
झिलमिलाते
चाँद-तारे
नदी-जल में तैरते-से दीप
देखते हैं
दृश्य अपलक
तल-अतल में मीन-घोंघे-सीप
भूल सब कुछ
चर-अचर मोहित हुआ !