भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

स्वर्णिम सपने / प्रेमलता त्रिपाठी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नैन देखें प्रिय तुम्हारे नित्य ही सपने ।
हो मिलन मन एक होकर प्राण जो अपने ।

रागिनी छेड़े निशा जब,नभ सजे तारक
है सुखद बेला सखे घन शून्य भी सजने ।

प्रीति की नव मालिका से जब सजाया रथ,
है हृदय मरुभूमि जो उसको लगे छलने

हो दिवा के स्वप्न स्वर्णिम,कर्म हो सुखदा,
आड़ ले मनुधर्म का हम, क्यों लगे जलने ।

स्वप्न देखें हम सुनहरे,सुख भरे दिन हों,
गुनगुनायें राग जीवन, घात क्यों पलने ।

पीढ़ियाँ आगे बढ़े हम, वह उकेरे पथ,
कर सुनिश्चित साधना मन में लगे फलने ।