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स्वर्णिम सपने / प्रेमलता त्रिपाठी
Kavita Kosh से
नैन देखें प्रिय तुम्हारे नित्य ही सपने ।
हो मिलन मन एक होकर प्राण जो अपने ।
रागिनी छेड़े निशा जब,नभ सजे तारक
है सुखद बेला सखे घन शून्य भी सजने ।
प्रीति की नव मालिका से जब सजाया रथ,
है हृदय मरुभूमि जो उसको लगे छलने
हो दिवा के स्वप्न स्वर्णिम,कर्म हो सुखदा,
आड़ ले मनुधर्म का हम, क्यों लगे जलने ।
स्वप्न देखें हम सुनहरे,सुख भरे दिन हों,
गुनगुनायें राग जीवन, घात क्यों पलने ।
पीढ़ियाँ आगे बढ़े हम, वह उकेरे पथ,
कर सुनिश्चित साधना मन में लगे फलने ।