स्वर्ण थारक उपहार / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’
अति प्राचीन कालमे काशी-विश्वनाथ दरबार
प्रगट भेल मणि-मुक्ता जडित पवित्र स्वर्णकेर थार
लिखल वाक्य छल-‘ई पाओत जे हो सर्वाधिक भक्त’
किन्तु सकल ने उठा-हिला जे क्यो छल जन आसक्त
भेल घोषणा काशीराजक भण्डारा खुजि गेल
देश-देशसँ शैव लोकनि जुटला ओहि थारक लेल
बड़े बड़े तापस, बैरागी, मुण्डी जटी विशेष
स्तुति कयलहुँ ने थार घुसकले कखनहुँ कनियहुँ रेख
ताहि समय सहजहिँ दर्शन हित पहुँचल एक गृहस्थ
जकरा किछुओ पता छलै नहि की उपहार प्रशस्त
दय डुबकी गंगामे, लय जल बेल-पत्र ओ फूल
मन्दिर द्वार पहुँचि रुकले सहसा किछु देखि अतूल
गलित अंग एक पंगु कोढ़ि, छल फाटक लग कुहरैत
पूति गंध सँ जकर फेरि मुख चलय सबहिँ झटकैत
द्रवित-हृदय ओ फिरल छोड़ि पूजा-पाठक व्यवहार
व्यथित स्वरेँ ममतासँ बाजल, करइत दुख उपचार
भैया! दुखी होउ जनु, चलु, बासा परकरु विश्राम।’
कान्हक भरसा दय पुनि टेकल, हँफइत लय शिव नाम
लेप लगाय, खोआय - पिआय, सुताय, मन्दिरक द्वार
पुनि पहुँचल पूजन हित, काशी-विश्वनाथ दरबार
मन्दिरमे प्रवेश करितहिँ सहसा ओ सोनक थार
अपनहि ओकर हाथ दिस ससरल! जय भक्त उदार!!