भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
स्वर बुनो मधुमय समय के / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
वर बुनो मधुमय समय के,
गीत, गुण गाओ हृदय के !
यह समय कैसा हुआ जो
भेद ही करता रहा है,
बावली पर बैठ कर भी
प्यास से मरता रहा है;
रेत को ही जल समझकर
नीर से आँखें बचाए,
जा रहा है युग हमारा
अग्नि हाथों में रचाए !
है घृणा सब द्वार खोले;
बन्द दरवाजे विनय के ।
विष-वचन अमृत बनेंगे
इसलिए तुम गीत जागो !
दिन घिरा जाता तमस से
भोर की यह नींद त्यागो !
सृष्टि होगी जैन-वाणी
बुद्ध-वाणी, उपनिषद्-सी,
फिर दिखे धरती हमारी
एक रामायण विशद-सी !
प्रेम के जागे ‘मनोरम’
छन्द सोये सब अनय के !