स्वांग / पूनम अरोड़ा 'श्री श्री'
स्त्री !
देखो मेरी अक्षर भूमि.
मेरे परिहास
दुलार
और लिंग की उत्तेजना.
तुम मेरे लिए काम-शास्त्र की अद्धभुत ऋचाएँ हो.
मेरे सौभाग्य का अनंत कमल हो.
डरती क्यों हो मुझसे?
मैं केवल तुम्हारा जीवित मांस चखूंगा.
काव्य लिखूंगा तुम्हारी नग्न पीठ पर.
वक्षों के उत्सवों का मैं दृष्टा हूँ.
नख से शिख तक अमर बेल समान कस दूंगा.
नाभि मेरा परम आनंद है.
उसके चारों और एक चक्र बनाकर.
तुम्हें उसी तरह मुक्त करूँगा
जैसे कोई चित्रकार मुक्त करता है अपनी तस्वीर को रंगों से.
स्त्री !
अनाहत चक्र से बाहर निकलो.
रास और रस में भेद क्यों करती हो तुम?
अग्नि-शिखा है तुम्हारी योनि.
प्रेत और प्रेम में भी अंतर क्यों करती हो?
तुम्हें नही आते त्यागने अपने वस्त्र.
अपनी आयु
अपनी आत्मा.
क्या भाग जाना चाहती हो इस सत्य से?
कि स्खलन में अंतिम और पूर्ण आहुति केवल तुम दे सकती हो.
केवल तुम ही सह सकती हो देहों का व्यंग्य
और पुरुष के अर्थ में छुपे काल को.
मैं प्रतीक्षा में पीपल के वृक्ष पर कब से टंगा हूँ.
विभक्त हूँ आकाश और धरा के मध्य केवल एक संवाद में.
क्या तुम मेरी जिव्हा के रस तंतुओं को विराम दोगी स्त्री?
उसे छिन्न-भिन्न कर !