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स्वाधीन व्यक्ति / रघुवीर सहाय

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इस अन्धेरे में कभी-कभी
दीख जाती है किसी की कविता
चौंध में दिखता है एक और कोई कवि

हम तीन कम-से-कम हैं, साथ हैं ।

आज हम
बात कम काम ज़्यादा चाहते हैं
इसी क्षण
मारना या मरना चाहते हैंऔर एक बहुत बड़ी आकाँक्षा से डरना चाहते हैं
ज़िलाधीशों से नहीं

कुछ भी लिखने से पहले हंसता और निराश
होता हूँ मैं
कि जो मैं लिखूँगा वैसा नहीं दिखूँगा
दिखूँगा या तो
रिरियाता हुआ
या गरजता हुआ
किसी को पुचकारता
किसी को बरजता हुआ
अपने में अलग सिरजता हुआ कुछ अनाथ
मूल्यों को
नहीं मैं दिखूँगा।

खण्डन लोग चाहते हैं या कि मण्डन
या फिर केवल अनुवाद लिसलिसाता भक्ति से
स्वाधीन इस देश में चौंकते हैं लोग
एक स्वाधीन व्यक्ति से

बहुत दिन हुए तब मैंने कहा था लिखूँगा नहीं
किसी के आदेश से
आज भी कहता हूँ
किन्तु आज पहले से कुछ और अधिक बार
बिना कहे रहता हूँ
क्योंकि आज भाषा ही मेरी एक मुश्किल नहीं रही

एक मेरी मुश्किल है जनता
जिससे मुझे नफ़रत है सच्ची और निस्सँग
जिस पर कि मेरा क्रोध बार-बार न्योछावर होता है

हो सकता है कि कोई मेरी कविता आख़िरी कविता हो जाए
मैं मुक्त हो जाऊँ
ढोंग के ढोल जो डुण्ड बजाते हैं उस हाहाकार में
यह मेरा अट्टहास ज़्यादा देर तक गूँजे खो जाने के पहले
मेरे सो जाने के पहले ।
उलझन समाज की वैसी ही बनी रहे

हो सकता है कि लोग लोग मार तमाम लोग
जिनसे मुझे नफ़रत है मिल जाएँ, अहँकारी
शासन को बदलने के बदले अपने को
बदलने लगें और मेरी कविता की नक़लें
अकविता जाएँ । बनिया बनिया रहे
बाम्हन बाम्हन और कायथ कायथ रहे
पर जब कविता लिखे तो आधुनिक
हो जाए । खीसें बा दे जब कहो तब गा दे ।

हो सकता है कि उन कवियों में मेरा सम्मान न हो
जिनके व्याख्यानों से सम्राज्ञी सहमत हैं
घूर पर फुदकते हुए सम्पादक गदगद हैं
हो सकता है कि कल जब कि अन्धेरे में दिखे
मेरा कवि बन्धु मुझे
वह न मुझे पहचाने, मैं न उसे पहचानूँ ।

हो सकता है कि यही मेरा योगदान हो कि
भाषा का मेरा फल जो चाहे मेरी हथेली से ख़ुशी से चुग ले ।

अन्याय तो भी खाता रहे मेरे प्यारे देश की देह ।

(13 जून 1966)