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स्वाभिमान (निजता का बोध) / धर्मेन्द्र चतुर्वेदी


नयनाभिराम बन जाते हो,
प्रभु शीशों को तुम भाते हो ;
शत-शत जन को पुनरपि-पुनरपि
मोहित करते जाते हो |

तुम पुष्प बनो और महको तुम ,ये गौरव तुम्हें मुबारक हो;
मैं कंटक हूँ,मर्यादित हूँ,है कंटक बन अभिमान मुझे ||

१-
म्रदु हाथों से पाला जाये,
और गहनों में ढाला जाये ;
फिर नवयौवन की सूरत के
अंगों में डाला जाये |

तुम स्वर्ण बनो और दमको तुम,ये आभा तुम्हें मुबारक हो,
मैं लौह बन क्षुधा मिटाऊं यदि,लोहा बन तब अभिमान मुझे ||

२-
युग-युग से अपना नाता है,
पर नभ तुमको छू जाता है ;
हिम खण्डों पर बसे-बसे
जग तुमको कब पाता है |

तुम गिरि बने अप्राप्य रहो,ये स्थिरता तुम्हें मुबारक हो,
मैं सरिता हूँ और बहती हूँ,सरिता बनकर अभिमान मुझे ||

३-
लहरें स्वप्नों की आती होगी,
सुन्दरता जग की भाती होगी ;
उस सुरभित प्रवास में बस
असफलता कब आती होगी |

तुम सफल बने लवलीन रहो,ये उन्नतता तुम्हें मुबारक हो,
मैं राही हूँ,भटकूँगा भी,राही बनकर अभिमान मुझे ||

४-
जब नवचेतना जगाती होगी,
रणदुन्दुभी बजाती होगी ;
वातासों में जब लिपट-लिपट
रक्तों की बू आती होगी |

ऐसे में यदि तुम हास करो,तो मुस्कानें तुम्हें मुबारक हों,
मैं युद्धभूमि की धूलि बनूँ ,कुचले जाकर अभिमान मुझे ||