स्वाभिमान / निवेदिता चक्रवर्ती
मैंने समूचा ही परोसा था
स्वयं को समाज की थाली में
किंतु मेरे अस्तित्व का कोई टुकड़ा
निगल लिया
मेरे स्वाभिमान ने चुपचाप आँखें बचा।
तभी तो पूरी तरह
समाप्त न हो सकी
स्पंदित होता है अब भी मेरा हृदय
किसी भी अन्याय के विरुद्ध।
नहीं स्वीकार पाती मैं उन नियमों को
जहाँ लिंग – भेद पर,
करता है निर्भर मानव-अधिकार।
मैं अपने खोल फाड़कर निकलती हूँ
धीरे - धीरे शंखनाद करती हुई ऊपर और ऊपर
अपनी दोनों भुजाओं से करती हूँ
असीमित आकाश का आलिंगन
क्षितिज के समस्त रहस्य झुठला देती हूँ
अपनी दृष्टि के विस्तार से
मेरी व्यक्तित्व – वृद्धि के सब अवरोधों को
बहा ले जाती हूँ, अपने विचारों के प्रवाह में
उद्वेलित होती हूँ, विचलित हो जाती हूँ
क्षण भर को दुर्गा हो जाती हूँ
महाशक्ति – समस्त शस्त्रों से सुसज्जित
अन्याय और अत्याचार जगत की
त्राहिमाम की ध्वनि पहुँचती है मेरे भीतर तक
अजेय अट्टहास करती हूँ मैं देर तक
धीरे-धीरे….
मेरा क्षणिक युद्ध समाप्त हो जाता है
मर्यादाओं की चौखट पर
स्वयं को बहुत विवश पाती हूँ
बस उम्र के हर पड़ाव पर अपलक निहारती हूँ
उस स्वाभिमान को
जिसने निगल लिया था
मेरे अस्तित्व का कोई टुकड़ा चुपचाप आँखें बचा!!
-निवेदिता चक्रवर्ती