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स्वार्थ की अंधी गुफ़ाओं तक रहे / ओमप्रकाश यती

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स्वार्थ की अंधी गुफ़ाओं तक रहे

लोग बस अपनी व्यथाओं तक रहे।


काम संकट में नहीं आया कोई

मित्र भी शुभकामनाओं तक रहे।


क्षुब्ध था मन देवताओं से मगर

स्वर हमारे प्रार्थनाओं तक रहे।


लोक को उन साधुओं से क्या मिला

जो हमेशा कन्दराओं तक रहे।


सामने ज्वालामुखी थे किन्तु हम

इन्द्रधनुषी कल्पनाओं तक रहे।